दिव्यांगना अप्सरा


"अप्सरा" शब्द सुनते ही एक नारी सौंदर्य हमारे मानस में अपनी छवि प्रस्तुत कर देता है,ऐसा सौंदर्य, जो अपने आप में अनूठा हो, अद्वितीय हो, अप्रतिम हो, क्योंकि सौंदर्य वही होता है जो किसी के भी मन को छू ले जो किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर ले.......... और फिर पूरे संसार का आधार ही सौंदर्य है ................तो ऐसा उमंगीत कर देने वाला, आनंदित कर देने वाला सौंदर्य कोई क्यों ना प्राप्त करना चाहे !  
                    अत्याधिक आकर्षित उमंगित और आनंदित कर देने वाली थी वह काया,जिसने मुझे वेशुध कर दिया था....
जब तक उसे एक बार ना देख लेता चैन नहीं पड़ता बेचैन हो जाता उसे देखे बिना...... पर ठहर कर जरा सोचा, कि ऐसा क्यों है?
       क्या हो गया है मुझे मेरा दिल मेरे बस में नहीं है। यह मेरे मन पर किसका आधिपत्य हो गया है, इसी विचार में करवटे बदलते बदलते रात गुजर जाती....... जो आंखें किसी स्त्री की तरफ नहीं उठती थी, वो इस कार्य की इतनी वशीभूत क्यू हो गई है?
....... और क्यों ना होती ऐसी रूपसी को देखकर उसको देखते ही मन में उसे पाने की हलचल सी मच जाती....
उसका रूप सौंदर्य अपने-अपने में अद्वितीय था..... उसे देखकर ऐसा लगता कि जैसे विधाता ने उसके एक एक अंग प्रत्यंग को बड़ी कुशलता के साथ गढा है, उसका सौंदर्य ऐसा अदभुत था जो उसे समान्य-नारी सौंदर्य की श्रेणी से अलग दर्शाता था।उसे देखकर ऐसा अनुभव होता जैसे वह एक साधारण स्त्री ना होकर सौंदर्य की देवी हो, कभी-कभी तो ऐसे भी लगने लगता कि वह इस पृथ्वी लोक की कन्या ना होकर किसी अन्य लोगों की सुंदर प्रतिमा हो, क्योंकि आज तक पृथ्वी पर मैंने तो कभी ऐसा आश्चर्यचकित कर देने वाला सौंदर्य देखा ही नहीं था।
          उसके देखने, उसके बोलने,उसके चलने की अदा अपने आप में अनोखी और किसी के भी मन को बेकाबू कर देने वाली थी...........ऐसी कि उसे देखकर कोई भी अचंभित रह जाए, एक मूर्ति बन ठगा सा खड़ा रह जाए उसकी अदाये उसे किसी समान्य स्त्री से अलग ही घोषित करती थी।
ऐसा क्या था उसके सौंदर्य में जिसने मेरा सब कुछ लूट लिया था इसी ख्याल में डूबा रहता मैं....और मन ही मन उस से प्रेम कर बैठा,अब उसको पा लेना ही मेरी मंजिल मेरा लक्ष्य हो गया....... किंतु उस जादु कर देने वाली रूपसी में आकर्षण के साथ ही इतना अधिक तेज भी था,कि मेरे पांव वहां तक ना जा पाते, मेरे होंठ अपने प्रेम का इजहार तक ना कर पाते, ऐसा क्यों होता कुछ समझ में नहीं आता।
    ........ और इसी कारण मैं शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों से स्वस्थ रहने लगा। मेरे इस अवस्था को देखकर घर के सभी सदस्य घबरा गए अच्छे से अच्छा इलाज कराने पर भी मेरा स्वस्थ होना असंभव सा हो गया था क्योंकि डॉक्टर समझ ही नहीं रहे कि रोग कौन सा है, सभी इस बात से दुखी व परेशान रहने लगे। यह तो मैं ही जानता था कि मेरे अंदर कितना द्वंद चल रहा है कितनी घुटन हो रही है ना जी पा रहा हूं और ना मर सकता हूं क्योंकि दोनों ही मेरे हाथों में नहीं था।
      लेकिन इस आंतरिक पीड़ा को और ज्यादा न सह पाने के कारण एक दिन अचानक अपने एक मित्र को सारी बात कह डाली, और अगले दिन ही उसने मुझे अपने घर आने के लिए कहा। मैं स्नान आदि से निवृत हो सुबह-सुबह ही उसके घर पहुंच गया वहां पहुंचकर लगा जैसे वह मेरे ही इंतजार में बैठा हो, बातचीत के दौरान उसने मुझसे एक सन्यासी का जिक्र किया और कहा कि- "हो सकता है ये तुम्हारी कुछ मदद कर सकें" ऐसा कह कर उसने मुझे उनके पास जाने के लिए पूछा मैं भी उसकी बातों को मानते हुए उसे संयासी जी के पास पहुंचा जो कि एक आश्रम में रहते थे।
   मित्र को देखते ही उन्होंने करुणामई दृष्टि से उसकी ओर देखा और मुस्कुराने लगे, क्योंकि वह सन्यासी मेरे मित्र के गुरु थे,और उनकी सेवा और उनके प्रति उसके समर्पण से ही बेहद ही प्रसन्न थे उनकी मनमोहक मुस्कान ने पहली नजर में ही मुझे प्रभावित कर लिया था।
                मित्र के आग्रह करने पर उन्होंने उस रूपसी के पूर्वजन्म का लेखा-जोखा मुझे स्पष्ट शब्दों में कहा सुनाया, जिसे सुनकर मैं हस्तप्रभ सा रह गया उन्होंने जो कहा वह तो मेरी कल्पना से भी परे था जिसे सुनकर मेरे रोम-रोम में रोमांच भर गया।
    उन्होंने बताया कि वह कोई साधारण गृहस्थ स्त्रियां या मानवी नहीं है अपितु एक अप्सरा है जिसका नाम "दिव्यांगना" है।
जैसा उसका नाम था वैसा ही उसका रूप सौंदर्य भी, यौवन के भार से लदा हुआ, सुंदरता से गड़ा हुआ,अनूठा अनुपम जिसे देखकर देवता भी ठगे से रह जाए...... ऐसा ही था उसका आकर्षण और निर्मल रूप,भोली,निर्दोष मुखाकृति जो उसे सभी अप्सराओं से श्रेष्ठ घोषित करती थी।
      अपनी इसी अद्वितीयता के कारण ही वह अन्य अप्सराओं में श्रेष्ठ और दिब्य भी मानी जाती थी, क्योंकि अपने नाम से ही अनुरूप दिव्य अंगों से विभूषित होने के कारण है उसका नाम "दिव्यांगना" पड़ा।
एक बार वैश्रब्य ऋषि अपने पिता की आज्ञा मान तपस्या में रत थे, उनका दृढ़ व्यक्तित्व अपने आप में अनोखा और अद्वितीय था जिसे देखकर उस दिव्यांगना अप्सरा का हृदय  काबू में ना रह सका, अपने रूप जाल में उन्हें फंसाने के लिए उसने नृत्य के द्वारा और अपने अंग-प्रत्यंगों के आकर्षण से उन्हें रिझाने का भरसक प्रयास किया और उनकी तपस्या को भंग कर दिया जिसे देख वैश्रब्य के पिता ने क्रोध से तिल मिलाते हुए श्राप दिया दिव्यांगना तुमने वैश्रब्य की तपस्या को भंग कर एक घोर अपराध किया है जिसका दंड तुम्हें मिलना ही चाहिए मैं तुम्हें यह श्राप देता हूं कि तुम्हारा जन्म पृथ्वी पर एक मानवी के रुप में होगा और तुम चाह कर के भी अब इंद्रलोक में विचरण नहीं कर सकती और ना ही इस प्रकार किसी ऋषि का तपस्या को भंग करने की दुस्साहस कर सकोगी।
   फिर गुरुदेव ने रुककर ........कुछ सोचते हुए मेरी ओर देखकर कहा कि यह वही अप्सरा है किंतु तुम चाह कर भी उससे विवाह नहीं कर सकते क्योंकि वह एक अप्सरा है,कोई साधारण स्त्री नहीं, वह बात अलग है कि श्राप के कारण वह अपनी वास्तविकता अपनी तेजस्विता को विस्मृत कर बैठी है ।तुम्हारे लिए यही अच्छा होगा कि तुम यह विचार अपने मन से निकाल दो, यह कह कर वे विश्राम गृह में चले गए और मैं घर लौट आया,किंतु उस विचार को अपने मन से ना निकाल सका।
     अब तो मेरे मन में उसे पाने की लालसा और भी ज्यादा तेज हो गई और यह विचार आया कि जीवन में कोई कार्य असंभव नहीं होगा उनके लिए जिनसे मुझे उसके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हुआ।
     
      क्रमशः..........

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