तेलिया कन्द


तेलिया कंद भारत की दिव्य और दुर्लभ औषधियों में से एक है इसीलए इसका नाम 64 दिव्य औषधियों में सबसे पहले आता है।अभी तक इसके बारे में विवरण तो कई ग्रंथों में मिलता है पर प्रमाणिक रुप से जानकारी किसी को भी नहीं थी। एक प्रकार से इसे अप्राप्य पौधा मान लिया गया था। एक जाने-माने वैद्य वैद्य हरि शंकर जी ने घोषणा की थी कि जो मुझे तेलियाकंद का प्रमाणिक पौधा लाकर दिखा देगा उसे मैं ₹100000 का पुरस्कार दूंगा पर वे अपनी इच्छा मन में ही लिए दुनिया से विदा हो गए
  कैंसर जैसे असाध्य रोगों पर यह आश्चर्यजनक रूप से प्रभाव युक्त है। इसके प्रभाव का उल्लेख किया जाए तो एक पूरा ग्रंथ बन सकता है इसी के संबंध में हम इस पोस्ट के माध्यम से तेलिया कंद के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे
   इस कंद का महत्व इसी बात से लगाया जा सकता है कि वैद्य घनश्याम दास जी वैद्य हरि प्रकाश जी आदि ने अपना पूरा जीवन ही इस कंद की खोज में लगा दिया परंतु फिर भी उन्हें इस प्रकार का कंद देखने को नहीं मिला। हारकर उन्होंने अपने जीवन के उत्तरार्ध में कहा कि तेलिया कंद के बारे में लगभग सभी आयुर्वेद ग्रंथों में पढ़ने को मिलता है परंतु अब इसका अस्तित्व पृथ्वी पर नहीं है, हो सकता है कि किसी समय मे यह कंद पृथ्वी पर रहा हो परंतु जिस प्रकार से कई दुर्लभ पशु पक्षियों की जाती नष्ट हो गई उसी प्रकार से तेलिया कंद की जाती भी नष्ट हो गई और यह अब केवल पुस्तकों तक ही रह गई है।
   तब मैंने कई साधु संतों के संपर्क स्थापित किया और इसके बारे में उनसे पूछताछ की तो उन्होंने बताया इस कंद की उपयोगिता और स्वच्छता के बारे में परंतु यह उन्होंने भी स्वीकार किया किया यह कंद अभी तक हमें देखने को नहीं मिला है।
साधु-संतों भारत के प्रसिद्ध वैद्यो, प्रमाणिक आयुर्वेद ग्रंथों में इस कंद के बारे में जो जानकारी प्राप्त हुई है वह इस प्रकार है:- इसके पत्ते कनेर के पत्ते की तरह लंबे पतले और तिकोने होते हैं उन पत्तों के ऊपर काले तिल के समान छींटे पड़े रहते हैं इसका कंद बहुत बड़ा होता है।
   यह कांड हाथ की लंबाई जितना मोटा और चिकना होता है तथा छोटे-छोटे छोटी गांठे दिखाई देती है।
  सुप्रसिद्ध वनस्पति शास्त्री रूपलाल जी ने अपने मासिक पत्रिका ब्यूटी दर्पण सन 1926 के अंक में लिखा है, कि यह पौधा अत्यंत दुर्लभ और महत्वपूर्ण है, इसके पत्ते चिकने होते हैं और दूर से यह सूरन के पत्तों की तरह दिखाई देता है। इन पत्तों के ऊपर काले तिल के सामान छिटे नहीं होते, परंतु तने के ऊपर ऐसे छींटे अवश्य होते हैं। उन्होंने इस पत्रिका में तेलिया कंद का चित्र में छपा था और लिखा था कि मुझे तेलिया कंद की एक पौधा भैयालाल पांडे से मिला है परंतु बाद में वनस्पति विशेषज्ञों के द्वारा जांच करने पर आरणी पौधा निकला।
        अनुभूत योग माला के सन 1934 के अक्टूबर माह अंक में इस कंद का परिचय देते हुए लिखा है कि यह कंद हिमालय और मध्य भारत में मिलता है तथा ऐसा कंद अत्यंत दुर्लभ पहाड़ी स्थानों पर पाया जाता है जहां मनुष्य की पहुंच बहुत कठिनता से होती है।
     सन 1967 में जापान के 5 सदस्यों का दल लगभग 4 महीने पूरी हिमालय में घूमता रहा उनका उद्देश्य केवल तेलिया कंद का पता लगाना था परंतु इसमें वे भी सफल नहीं हो सके। हार कर उन्होंने अपनी टिप्पणी दें कि यह कंद इस समय समाप्त नहीं हुआ है तो दुर्लभ अवश्य है।
    इन सारे तथ्यों से पता चलता है कि इस कंद के बारे में खोज पिछले 100 वर्षों से हो रही है और लोगों ने अपना पूरा जीवन इसकी खोज में ही लगा दिया है परंतु अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सके हैं। इससे इस महत्वपूर्ण कंद के महत्व की महिमा को जाना जा सकता है।
गुण दोष----
       इसमें कोई दो राय नहीं है कि प्राचीन काल में यह कंद भारत भूमि पर अवश्य था और हमारे ऋषि मुनि और आयुर्वेद के ज्ञाता इस कंद का उपयोग करते थे, उन्होंने इसके बारे में सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग किया है कुछ महत्वपूर्ण तथ्य इस प्रकार हैं
यह एक चमत्कारिक वनस्पति है और उसके दर्शन ही महत्वपूर्ण है "चरक संहिता टीका"
तेलिया कंद दिव्य कंद है और इसके रस से पारे की गोली सुगमता से बांधी जा सकती है "काव्य संहिता "
 तेलिया कंद अत्यंत महत्वपूर्ण औषधि है इस के रस को पारे में मिलाने से पारा तुरंत ठोस होकर गोली का आकार धारण कर लेता है और इस गोली के सहयोग से तांबा और चांदी तुरंत सोने में बदल जाती है "श्रुति विज्ञान"
तेलिया कंद का रस अत्यंत महत्वपूर्ण है इसे शीशी में भरकर उसमें पारे को शहद में घोटकर मिला दिया जाए तो 4 घंटे में पारा सिद्ध सूत में परिवर्तित हो जाता है यह सिद्ध सूत तांबे को सोने में एक ही क्षण में परिवर्तित कर देता है  "डॉक्टर प्राणेकर"
यदि तेलिया कंद के रस में भिगोया हुआ पारा जहर खाए व्यक्ति की हथेली पर रख दिया जाए तो यह सारा शरीर के पूरे शहर को चूस लेता है और व्यक्ति बन जाता है "पंडित पक्षधर झा"
यदि तेलिया कंद का छोटा सा तने का टुकड़ा पानी में रखकर यदि उस पानी से स्नान की जाए तो शरीर के किसी भी प्रकार का चर्म रोग मात्र 2 दिन में समाप्त हो जाता है "आयुर्वेद रत्न"
तेलिया कंद को यदि पुत्रदा कंद कहा जाए तो ज्यादा उपयुक्त रहता है यदि इसके कंद को पानी में घिसकर बांझ स्त्री रजस्वला समय में केवल 3 दिन ही ले ले तो निश्चय ही उसे पुत्र रत्न प्राप्त होता है इस कंद की सबसे बड़ी विशेषता ही यही है आदि आदि।
    कुल मिलाकर इन सारे ग्रंथों को पढ़ने से यह तो स्पष्ट हुआ कि यह कंद अत्यंत ही महत्वपूर्ण और दुर्लभ है। यदि इसे आयुर्वेद की 64 दिव्य औषधियो में सर्व प्रमुख स्थान मिला है तो निश्चय ही यह अत्यंत महत्वपूर्ण होनी चाहिए ।
    मेरे पास एक प्राचीन हस्तलिखित पुस्तक थी उसमें भी तेलिया कंद के बारे में कुछ विवरण मिलता था। यह पुस्तक हमारे परिवार में कई पीढ़ियों से सुरक्षित चली आ रही थी, उस पुस्तक में लिखा था कि तेलिया कंद का रस तांबे को सोने में तुरंत परिवर्तित कर देता है मेरे पिताजी ने भी जो कि प्रसिद्ध वैद्य थे कहा था कि हम लोगों के ऐसे सौभाग्य कहां कि हम इस कंद के दर्शन कर सके। इससे भी मेरे मन में यह प्रबल इच्छा जागृत हुई कि यदि इस पृथ्वी पर कंद है तो उसका पता अवश्य लगाया जाए। मेरे मन में भी यह दबी हुई एक साथी की यदि मैंने तेलियाकंद का पता लगा लिया तो यह आयुर्वेद की बहुत बड़ी सेवा होगी और मेरा नाम आयुर्वेद समाज में हमेशा हमेशा के लिए अमर हो जाएगा
    परंतु मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था कि मैं इसके लिए शुरुआत करूं तो कहां से करूं मेरा पिछला अनुभव यह है, कि इसके बारे में अगर किसी वैद्य से भी अब आगे और जानकारी नहीं मिल सकेगी। जितना भी साधु सन्यासी और लोगों से मिला था उन सब ने नहीं बताया था कि उन्हें स्कंध के बारे में मालूम नहीं पढ़ सका यदि आप इसके बारे में बहुत सुना है। इस संबंध में मैं कई साधु और सन्यासियों से मिला उन्होंने बताया कि यह कंद आबू, गिरनार, विंध्याचल, हिमालय आदि पहाड़ों पर मिल सकता है मैंने गिरनार का चप्पा चप्पा छान मारा परंतु मुझे इस कांद के बारे में मालूम नहीं पड़ सका। अब मैं प्रमाणित रूप से कह सकता हूं कि भले ही प्राचीन समय में आबू और गिरिनार के पहाड़ों में तेलिया कंद का पौधा रहा होगा परंतु अब इन पहाड़ों में अब यह दुर्लभ पौधा प्राप्त नहीं है।
इसी बीच मुझे देहरादून की आगे मसूरी की पहाड़ियों में घूमने का अवसर मिला तो वहां मैंने सुना कि कोई सीताराम स्वामी है जिनको तेलिया कंद के बारे में पूरी जानकारी है
   मैंने इससे पहले भी सीताराम स्वामी के बारे में सुन रखा था कि वे आयु से वृद्ध है परंतु उनके पास है जड़ी बूटी और आयुर्वेद के विशेष नुस्खे हैं जो कि अन्य किसी ग्रंथ में प्राप्त नहीं होते। यह भी सुना था कि वह एक श्रेष्ठ आयुर्वेद रसायनिज्ञ हैं।यदि कोई मृत्यु के निकट पहुंचा हुआ व्यक्ति भी उनके आंगन तक पहुंच जाता है तो फिर वह मर नहीं सकता क्योंकि उन्हें सैकड़ों हजारों अचूक नुक्से ज्ञात है।
    मैं फिर प्रयत्न करके उनके घर तक पहुंचा परंतु, मेरा दुर्भाग्य कि वहां जाने पर मुझे पता चला कि 4 महीने पूर्व ही उनका देहांत हो चुका है। मृत्यु के समय उनकी आयु 105 वर्ष थी और अंतिम समय तक भी उनका सारा शरीर स्वस्थ व क्रियाशीलता तथा वे नित्य तीन चार मील की पैदल यात्रा कर लेते थे।
  परंतु मुझे वहां एक महत्वपूर्ण जानकारियां मिली कि काफी वर्ष पूर्व जोधपुर के श्रीमाली जी इनके पास कुछ महीने रहकर इन का विश्वास प्राप्त कर सके थे और इनसे आयुर्वेद के सारे नुस्खे प्राप्त किए थे इसके बदले में श्रीमाली जी ने इनको सम्मोहन प्रयोग व वशीकरण प्रयोग सिखलाया था,और बदले में सीताराम जी ने अपने पास जितने भी नुस्खे थे वह सब प्रमाणिक रुप से बता दिए थे साथ ही साथ अपने सामने उसको आजमा कर या प्रयोग करके भी बता दिया था तथा तेलिया कंद के बारे में मैं भी इनसे प्रामाणिक जानकारी श्रीमाली जी को मिली थी।
   श्रीमाली जी का नाम ज्योतिष और तंत्र-मंत्र के क्षेत्र में काफी सुन रखा था इसलिए उनके बारे में कोई भी बात छुपी हुई नहीं थी मैं वहां से बिना विलंब किए सीधा जोधपुर जा पहुंचा।

सिद्धाश्रम-3


अब आगे सघन आश्रम शुरू हो गया था, चारों तरफ खुला खुला वातावरण प्रकृति के बीचो-बीच यह यह स्थान अपने आप में चेतनायुक्त दिव्य अनुभव हो रहा था, यहां पर विचरण करते हुए कई अति विशिष्ट योगी और साधु दिखाई दिए, जिनमें रसायनिज्ञ नागार्जुन भी थे। मैंने देखा कि अधिकतर योगी और सन्यासी पूज्य गुरुदेव से परिचित थे और लगभग वे सभी देखते ही अवाक हो जाते हैं और फिर तुरंत भूमि पर लेट कर दंडवत प्रणाम करने लगते।
                    थोड़ा सा आगे बढ़ने पर फूलों से अच्छादित एक कुटिया के पास रुक कर बाहर बड़े एक तेजस्वी साधु को मेरी तरफ संकेत कर कहा यह तेरे पास रहेगा ,फिर मुझे संबोधित करते हुए गुरुदेव ने कहा कि मैं जा रहा हूं अब तू दो-तीन दिन इनके साथ ही रहेगा, फिर उस साधु को संबोधित करते हुए कहा यह पहली बार ही सिद्धाश्रम में आया है, इसे स्नान कराकर विरुपाक्ष साधना सिखाओ और यदि इसके मन में घूमने की इच्छा हो तो तुम बराबर इसका मार्गदर्शन करते रहना।
                वह साधु गुरुदेव की आज्ञा पाकर धन्य हो गया और चरणों में लिपटकर खिल उठा ,गुरुदेव आगे बढ़ गए और मैं उस सन्यासी के पास रुक गया, बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि सन्यासी का नाम पूर्णानंद स्वामी है उसकी आयु लगभग 250 वर्ष है परंतु मुझे वे 40 वर्ष से ज्यादा आयु के अनुभव नहीं हो रहे थे।
              उनके साथ मैं कुटिया के अंदर गया तो मैं अंदर का दृश्य देखकर आश्चर्यचकित रह गया। कुटिया में सारी सुख-सुविधाएं पहले से ही थी जो मनुष्य के लिए आवश्यक होती है। ऐसा लग रहा था जैसे वह मात्र कुटिया ही नहीं अपितु देव लोक का संक्षिप्त संस्करण हो।
                         मुझे पूर्णानंद ने बताया कि तुम्हें चलकर सिद्ध योगा झील में स्नान कर लेना चाहिए, जिससे कि तुम्हारा कायाकल्प हो सके। मैं उनके साथ झील की तरफ बढ़ गया ,झील के किनारे किनारे सैकड़ों संगमरमर के समान पारदर्शी स्फटिक पत्थर पड़े थे जिनमें से प्रकाश निकल रहा था मैं मृगचर्म पहनकर झील में उतर पड़ा। 
                    मैंने जी भर कर स्नान किया पर स्नान करते ही मुझे ऐसा लगा जैसे अंदर का सारा जीर्णता घुल गया हो। काम क्रोध लोभ मोह आदि वृतियां तिरोहित हो गई, मन में एक विशेष उमंग और उत्साह का लावा सा फूट पड़ा। हृदय में एक ही चिंतन रहा है कि मुझे यहां साधनात्मक दृष्टि से उच्चतम स्थिति प्राप्त करना है।
          मैं जब बाहर निकला और अपने शरीर को पूछा तो मेरे सारे वाह्य रोग समाप्त से हो गए, मैं कई वर्षों से गठिया रोग से पीड़ित था और बराबर घुटने में दर्द अनुभव कर रहा था परंतु स्नान करने के बाद आज तक ना तो गठिया रोग ने तकलीफ दी और ना अन्य किसी प्रकार का रोग मुझे अनुभव हुआ। मैंने शरीर पोछकर उस किनारे पड़े कांच की तरह स्फटिक पत्थर में झांका तो ऐसा लगा जैसे मेरा चेहरा अत्याधिक सुंदर ,आकर्षक और तेजस्वी हो उठा है। मेरे हाथों पैरों की झुरिया समाप्त सी हो गई और सबसे बड़ी आश्चर्य की बात तो यह थी कि मेरे शरीर में जो चर्बी की ज्यादा मात्रा थी वह स्वतः ही दूर होकर मेरा पूरा शरीर संतुलित और आकर्षक हो उठा।
                    मुझे पूर्णानंद स्वामी ने नए वस्त्र धारण करने के लिए दिए,उन वस्त्रों को पहनने के बाद मैं अपने आपको अत्यंत तरोताजा और स्वस्थ अनुभव कर रहा था। मैं जब पूर्णानंद स्वामी के साथ आया था तब उनके हाथों किसी प्रकार का कोई वस्त्र नहीं थे फिर यह अचानक हुआ वस्त्र उनके पास कहां से आ गए? यह मेरे लिए सामान्य कोतूहल की बात थी, मेरे पूछने पर स्वामी जी ने बताया कि यहां पर जिस वस्तु की कामना की जाती है प्रकृति सोता है, प्रकृति उस वस्तु की पूर्ति तत्क्षण कर देती है। परीक्षा के लिए मैंने एक क्षण के लिए मन में सोचा कि मैं कैसा साधू हूं कि मेरे हाथ में तो एक कमंडल भी नहीं है, उसी क्षण आश्चर्य से मैंने देखा कि मेरे दाहिने हाथ में स्वतः ही कमंडलु आ गया। मैं प्रकृति पूरित  इस व्यवस्था धन्य हो उठा।
         सन्यासी मित्र के साथ मैं उस उद्धान मे कुछ क्षणों के लिए जा बैठा जहां मृग शावक विचरण कर रहे थे ।सारा उद्यान सुगंधित पुष्पों से अच्छादित था दो तीन हिरण मेरे पास आकर मोहित से खड़ी हो गए जैसे वह मुझे कई वर्षों से जान रहे हो। एक छोटे से मृग शावक को मैंने गोदी में उठा लिया, वहां पर कई सन्यासी सन्यासीनिया सबैठी हुई परस्पर मनोविनोद में व्यस्त थी। मुझ जैसे आगंतुक को देखकर 8-10 सन्यासनिया पास आकर खड़ी हो गई और जब उन्हें पूर्णानंद स्वामी से पता चला कि मैं आज ही आया हूं और स्वामी निखिलेश्वरानंद जी का शिष्य हूं तो मैंने देखा कि गुरुदेव का नाम लेते हैं उनकी आंखें श्रद्धा से झुक गई और मेरे भाग्य पर ईर्ष्या करने लगी कि मैं उनका शिष्य हूं एक ने तो कहा कि वास्तव में ही आप कोई बहुत बड़े पुण्य किए होंगे तभी महायोगी का शिष्य प्राप्त कर सके हैं हम तो उनसे बातचीत करने को ही तरस रहे हैं, पर अब आप आ गए हैं तो शायद आपके द्वारा वहां तक पहुंच सके।
               मैं अपने गुरु के सम्मान और उनके प्रति लोगों की श्रद्धा देखकर गदगद हो उठा, वहां से मैं कल्पवृक्ष की तरफ बड़ा और कुछ क्षणों के लिए कल्प वृक्ष के नीचे ध्यान मस्त होकर बैठ गया। एक क्षण में मेरा ध्यान लग गया और अपने श्वास को सहस्त्रधारा में स्थित कर लिया। उस क्षण मुझे जो दृश्य और अनुभूति हुई वह शब्दों से परे हैं। कुछ समय बाद मैं चैतन्य होकर उठा और मेरे आदि ऋषि भारद्वाज के चरणों में साष्टांग दंडवत किया, निर्विकार ध्यान मग्न थे कभी-कभी कुछ क्षणों के लिए उनकी आंखें की ऊपर की पलक हिल जाती थी जिस से ज्ञात होता है कि वह पूरी ध्यान अवस्था में है
    3 दिन कैसे बीत गया कुछ पता ही नहीं चला प्रातः काल भगवान सूर्य बर्फीले कैलाश पर्वत के पीछे से निकलते हुए से प्रतीत होते थे कि मानो वे स्वयं आश्रम में आने के लिए व्याकुल हो। दिन आश्रम में घूमने में ही बीत जाता एक अलौकिक दृष्टिगोचर होती जो भी देखता वह अपने आप में अन्यतम होता है, एक एक दृश्य एक एक प्रकृति के रूप अत्यंत सम्मोहक और शब्दों से परे है ऐसा लग रहा था जैसे वहां प्रकृति ने शत-शत रूपों में अपना श्रृंगार किया है। मैं एक दिन सिद्ध प्रपात की ओर भी गया जहां पानी 300 फीट ऊपर से गिरता है कोई साधक साधिका है वहां विचरण करते हुए दिखाई दिए। रात तो वहां को अत्यधिक सम्मोहक और जादू भरी होती है कहीं पर सन्यासी अपने अनुभवों को सुना रहे हैं, तो कहीं शांत चित्त होकर ध्यानस्थ है, कहीं पर उच्च कोटि के जोगी प्रवचन कर रहे हैं और सैकड़ों की संख्या में ऋषि उनके सामने बैठे हुए उनकी आवाज की अमृत पान कर रहे हैं, चारों तरफ एक विचित्र उमंग का सैलाब मैंने अनुभव किया। 
           इन दिनो में पूज्य गुरुदेव से एक बार भी दर्शन नहीं हुए मैंने अपने सहचर पूर्णानंद स्वामी से पूछा तो उन्होंने कहा संभवता परम गुरु के पास गए हो पर हमें उधर बिना आज्ञा जाने का निषेध है।
       चौथ के दिन प्रातः काल में स्नान करके तैयार हुआ ही था कि पूज्य गुरुदेव दिखाई दिए ऐसा लगा जैसे कि मैं कई वर्षों से अपने गुरु से बिछड़ गया हूं और आज पुनः उनसे मिला हूं दौड़कर मै उनके चरणों से लिपट गया उन्होंने मेरे कायाकल्प को देखकर प्रसन्नता व्यक्त किया और कहा चलो वापस चलते हैं। यह शब्द मेरे लिए हथौड़े की तरह थी और मैं एक बारगी सन्न रह गया, मेरी रति मात्र भी इच्छा वापस चलने की नहीं हो रही थी, इसने नैसर्गिक स्थान पर न मन में किसी प्रकार का न अभाव होता और ना ही चिंता, दुख परेशानी ही। अब मुझे वापस उस संसार रूपी घोर नरक में फिर जाना होगा वहां पग पग पर झूठे छल,धोखा कपट व्यभिचार और घृणा है जहां आदमी नकली है और चेहरे पर एक कृत्रिम मुस्कुराहट से चढ़ाए हुए एक दूसरे को काटने की फिराक में हैं।
       पर मैं विवश था मैंने गुरुदेव से नम्र निवेदन भी किया और उन्होंने एक ही शब्द में मेरी आशाएं ध्वस्त कर दी की साधना और तपस्या का मूल उद्देश्य तो संतप्त और दग्ध लोगों का मार्गदर्शन करता है, उनके आंसू पोछना है, इनके लिए स्वयं को तेरी तिल जलाकर और सभी प्रकार के घात प्रतिघात को झेलना आवश्यक है, और पूर्णानंद स्वामी के सिर पर हाथ फेर कर गुरुदेव आगे बढ़ गए वह तो इतने से ही धन्य हो गए और प्रसन्नता के अतिरेक मे उनकी आंखों में आंसू छलक आए।
       विचरण करते हुए चल सन्यासी सन्यासी न्यूज़ सुना कि स्वामी जी पुनः जा रहे हैं तो वे दर्शन करने के लिए दौड़ दौड़ कर रास्ते के दोनों ओर खड़े हो गए और ज्यो ही वे स्वामी जी के  दर्शन करते अपने आप को हृदय कृत्य कृत्य अनुभव करते।
      इस बार गुरुदेव दूसरे रास्ते से चलकर सिद्धाश्रम से बाहर आए और फिर वहां से मुझे लेकर बद्रीनाथ पहुंचे वहां से बस द्वारा हम ऋषिकेश आये। ऋषिकेश में उन्होंने मुझे छोड़ते हुए कहा कि तुमने थोड़ी समय में साधना करके जो स्थिति प्राप्त की है उसको बराबर अक्षुण्य बनाए रखना। सधनात्मक अनुभवों को यथासंभव अपने तक ही सीमित रखो और कोई ऐसा कार्य मत करो जो सामाजिक नैतिक नियमों के विपरीत हो।
   यहां से गुरुदेव किसी अन्य स्थान पर एक-दो दिन के लिए जाने वाले थे, मुझे अपने घर चले जाने की आज्ञा प्राप्त हुई, पर अब मेरा मन घर जाने को नहीं हो रहा था मैं आंसू प्रति नेत्रों से सन्यास धारण करने की इच्छा प्रकट की तो उन्होंने स्वीकृति दे दी।
मैं घर लौटा और पुनः अपने कामकाज में लग गया परंतु एक क्षण के लिए भी मैं उस अलौकिक स्वर्ग को भुला नहीं पाया ,इसके बाद मेरे शरीर में ना तो कोई  व्याधि रही  और ना ही आज तक कोई बीमारी। मेरे  निखरे हुए यौवनमय स्वरूप को देखकर आज भी लोग आश्चर्य कर कर रहे हैं । यह सब उन महर्षियों की कृपा है जिनकी वजह से यह गूढ़ ज्ञान जीवित रह सका सबसे ज्यादा कृपा तो अपने गुरुदेव के प्रति है जिनकी कृपा से मैं अपने जीवन को जितना भी हो सका साधनामय बना सका हूं मेरा रोम रोम उनके प्रति कृतज्ञ है।

सिद्धाश्रम-2

रास्ते के दाहिने और मिलो लंबा भाग दिखाई दे रहा था, जो हजारों तरह के फूलों से खिला हुआ प्रतीत हो रहा था। उन फूलों की मिनी मस्त और मधुर सुगंध तन मन को भिगो रही थी, दूर पहाड़ों की घटिया दिखाई दे रहे थे जो बर्फ से पूर्णता: अच्छादित थी। मैंने इस प्रकार के खिले हुए पुष्प पहली बार देखे, हजारों तरह के गुलाबी और विविध पुष्पों को एक साथ में देख रहा था यद्यपि मुझे बद्रीनाथ के रास्ते में फूलों की घाटी देखने का अवसर मिला है, पर वह इस वनश्री का करोड़ोंवा हिस्सा भी नहीं हो सकता है। एक तरफ मिलो लंबी फैली हुई शांत झील जिस पर विशिष्ट राजहंस उन्मुक्त विचरण कर रहे थे कई सन्यासी और सन्यासिनिया अपनी गोदी में राजहंसो को लेकर दुलार रही थी और दूसरी तरफ मिलो फैला हुआ पुष्पों का अखंड साम्राज्य ऐसा दृश्य वास्तव में ही अपने आप में अनिवर्चनीय है हम तो स्वर्ग की कल्पना ही करते हैं पर इसे दृश्य के आगे तो स्वर्ग भी भावना नजर आ रहा था।
     अभी तक किसी झील के किनारे किनारे ही आगे बढ़ रहे थे, कुछ दूर चलने पर दाहिने और फूलों के बीच साधकों की कुटिया दिखाई देने लगी, कई स्थानों पर साधक और सन्यासी ध्यान लगाए दृष्टिगोचर हो रहे थे। कुछ आगे चलने पर बाईं तरफ झील के किनारे किनारे स्फटिक की सिलाईओं पर बैठे हुए ध्यानस्त सन्यासी दिखाई देने लगे, ऐसा लगता था जैसे साक्षात देवता हैं वहां ध्यानस्थ हो शांत,सुरम्य,एकांत वातावरण सामने झील का लहराता हुआ जल किनारे पर भव्य पारदर्शी स्फटिक शिला है और उन पर बैठे हुए सन्यासी...... एक ऐसे वातावरण की सृष्टि कर रहे थे जो अपने आप में दिव्य और अनुपम है।
          इसके अलावा कई सन्यासी इधर-उधर विचरण कर रहे थे, परंतु वहां किसी प्रकार की कोई हड़बड़ी नहीं, किसी प्रकार का कोई उतावलापन नहीं, ऐसा लग रहा था जैसे सब कुछ अदृश्य सत्ता के हाथों नियंत्रित हो।अधिकांश सन्यासी पूज्य गुरुदेव से परिचित प्रतीत हो रहे थे, क्योंकि ज्योंही गुरुदेव को देखते आश्चर्य से एकबारगी थम जाते और फिर अपना कमंडलु एक तरफ रख साष्टांग दंडवत करने लग जाते। झील के किनारे जब हम पहुंचे तो सैकड़ों सन्यासी सन्यासनियां  उन्हें देखकर आश्चर्य के साथ-साथ आत्मविभोर सी हो गई और अत्यंत शालीनता के साथ उन्हें प्रणाम कर स्वयं में ऐसा अनुभव करने लगी कि जैसे उन्होंने आज बहुत कुछ प्राप्त कर लिया हो। एक जगह स्फटिक शिला पर विश्राम के लिए कुछ झणों के लिए बैठे तो कई सन्यासी तट से उठकर स्फटिक शिला के चारों ओर शांत भाव से आकर बैठ गए सामने विस्तृत झील और स्फटिक शिला पर परम पूज्य गुरुदेव के चारों ओर उच्च कोटि के सन्यासी मात्र दर्शन कर अपने जीवन को पूर्णता देने का प्रयास कर रहे थे मैंने सहज बालपन वस एक हंस को अपनी गोदी में उठा लिया। वहां सभी पक्षी निर्भय निर्मुक्त है, उन्हें एहसास है, कि वे सुरक्षित है राजहंस का सुखद स्पर्श मेरे प्राणों को छू गया।
कुछ समय बाद गुरुदेव वहां से उठ कर खड़े हुए और मुझे संकेत कर आगे बढ़ गए, ज्यों-ज्यों हम आगे बढ़ रहे थे तेव तेव काफी सन्यासी दिखाई दे रहे थे, आश्रम की कुटिया सादगीपूर्ण और दिव्या आभा से ओत-प्रोत थी, सभी कुटियाए सहज स्वाभाविक प्रकृति निर्मित थी, जिनके बाहर तपस्वी ध्यानस्थ थे,और अपने जीवन की उन परमसत्ता से जुड़े हुए थे, जहां न किसी प्रकार का भय है, न चिंतन है, न किसी प्रकार का कष्ट है, न व्याधि है, न तनाव है, न परेशानी है। सभी के चेहरे तेज युक्त दिव्या आभा से ओत-प्रोत एक विशेष प्रकाश से युक्त दिखाई दे रहे थे जिसका दर्शन हो पाना अपने आप में गौरव युक्त था।
                       मेरे लिए यह शब्द अद्भुत, अलौकिक और आश्चर्यजनक था, मैं तो ऐसा अनुभव कर रहा था कि जैसे मैं मृत्यु लोक का सामान्य मानव स्वर्ग लोक में पहुंच गया हूं। सारा आश्रम इस प्रकार से व्यवस्थित और संचालित है कि कहीं कोई गड़बड़ या उतावलापन दिखाई नहीं दे रहा था
                   थोड़ा सा आगे बढ़ने पर हम बाएं रास्ते पर आगे बढ़ गए यह स्थान विशिष्ट क्षेत्र कहलाता था, जिसमें कुछ विशिष्ट साधनाए करने के बाद ही प्रवेश पाया जा सकता था। मैं अपने गुरुदेव के साथ आगे बढ़ रहा था एक तरफ झील के किनारे काफी वृक्ष सघन कुंज की तरह दिखाई दे रहे थे, जिन पर हजारों हजारों पुष्पा अपनी महक से पूरे वन प्रांतों को सुभाषित कर रहे थे। गुरुदेव ने बताया है यह लघु कल्पवृक्ष है, इसे न्यूनतम प्रयोग करो गाया गया है मूल कल्प वृक्ष आगे है थोड़ा सा ही आगे चलने पर मुझे मूल कल्पवृक्ष दिखाया जो अत्यंत घाना और छायादार था, उसके पत्ते त्रामवर्णि थे,जिसमें से हल्का प्रकाश क्षर रहा था, पूरा पेड़ गुलाबी पुष्पों से आच्छादित था।
               मुझे बताया गया कि वह मूल कल्प वृक्ष है जिसकी प्रशंसा तुम्हारे पुराणों और ग्रंथों में की गई है। कल्पवृक्ष के दाहिनी ओर अत्यंत भव्य स्फटिक शिला पर एक अत्यंत वृद्ध तेजस्वी ऋषि ध्यानास्थ थे। उनके चांदी के समान बाल चारों तरफ बिखर गए थे, उनके चेहरे पर एक विचित्र प्रकार की आभा और प्रकाश झर रहा था, जिसे देखते ही मन में उनके प्रति नमन होने की इच्छा हो रही थी। मैंने उन्हें प्रणाम किया गुरुदेव ने कहा कि ये भारद्वाज ऋषि हैं जिस गोत्र के तुम हो ।कई वर्षों से यह समाधि में है, अपने जीवन में पहली बार अपने गोत्र के आदी महामानव को देख कर मेरा हृदय गदगद हो गया। गुरुदेव आगे बढ़ चुके थे मैं भी पीछे पीछे आगे बढ़ गया।
             अब हम झील के उस भाग के निकट पहुंच चुके थे जो हजारों हजारों पुष्पों से अच्छादित था। इस प्रकार के बड़े बड़े पुष्प मैंने अपने जीवन में पहली बार देखे थे। ब्रह्मकमल का वहां बहुतायत थी। झील के किनारे स्थान पर बहुत लंबा-चौड़ा उधान सा बना हुआ था जीनेमें श्याम वर्णनीय हिरण निर्द्वंद निश्चिंत होकर घूम रहे थे यहां कई साधिकाएं उन्मुक्त भाव से बैठी हुई थी या परस्पर विनोद भाव से एक दूसरे के पीछे दौड़ते हुए दिखाई दे रही थी। वहां पर झील में कई नौकाय देखी, जो संभवतः स्फटिक शिलाओ से बनी हुई होंगी ,क्योंकि फाइबरग्लास की तरह यह नौकाय हल्की और सुंदर दिखाई दे रही थी। इन नौकाओं में सन्यासी और सन्यासनिया अपने ही हाथों से चप्पू लेकर झील में विचरण कर रहे थे। सारा दृश्य ऐसा लग रहा जैसे कि वही पर हमेशा हमेशा के लिए ठहर जाऊ। गौरवर्ण सुंदर और स्वस्थ आकर्षक सन्यासिनी भगवे वस्त्र लंबी जटाएं पैरों में खड़ाऊ और हाथों में मृग सावक, कुल मिलाकर कण्व के आश्रम की याद दिला रहे थे जहां शकुंतला इसी प्रकार से विचरण कर रही होंगी।
         थोड़ा सा आगे बढ़ाने पर हम दाहिनी ओर मुड़ गए बाई ओर एक स्थान पर देव आश्रम लिखा हुआ था संभवताः इस तरह देवताओं व देव कन्याओं का निवास होगा, दाहिनी ओर मुड़ने पर आगे कई सन्यासी ध्यानस्थ बैठे हुए थे। एक स्थान पर गुरु देव ने रुक कर स्वयं उन सन्यासियों को प्रणाम किया जो ध्यानस्थ थे, मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि यह महाभारत में वर्णित युधिष्ठिर, कृपाचार्य और भीष्म पितामह है।

सिद्धाश्रम


सिद्धाश्रम देवताओं का आश्रम कहा जाता है,कहा गया है "सिद्धाश्रम महत्त् दिव्यं देवानामपि दुर्लभं"अर्थात् सिद्धाश्रम अत्यंत उच्च कोटि का दिव्य आश्रम है जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है, मानव जाति के कल्याण हेतु यह एक ऐसा आध्यात्मिक केंद्र है जो समस्त ब्रह्मांड को अपने आध्यात्मिक ऊर्जा से नियंत्रित किए हुए हैं।
                                   पिछले हजारों वर्षों से कई-कई ग्रंथो में सिद्धाश्रम के बारे में विवरण पढ़ने को मिलता है, परंतु इसमें प्रवेश पाना और अपने जीवन को जरा मरण से मुक्ति दिलाना अहोभाग्य ही कहा जा सकता है, इस मानव देह को प्राप्त कर यदि लाख काम छोड़ कर के भी इस तरफ प्रयत्न करें और केवल सिद्धाश्रम को इस चर्म-चक्षुओ से देख भी ले तब भी ईस जीवन की सार्थकता हो सकती है।
   सिद्धाश्रम एक ऐसा दिव्या तपोभूमि है जहां 2000 वर्ष की आयु प्राप्त सन्यासी साधनारत है। वहां कल्पवृक्ष है जिसके नीचे बैठकर जो भी याचना की जाती है पूरी हो जाती है। वहां सिद्ध योगा झील है जिसमें एक बार स्नान करने से ही व्यक्ति का कायाकल्प हो जाता है।इसे चर्म चक्षुओ से देखा जाना संभव नहीं है, जिसकी कुंडलिनी सहस्त्रार खुला हो वही इसे देख सकता है और निश्चित साधनाएं संपन्न करने पर ही इसमें प्रवेश पाया जा सकता है। यहां पर पहुंचने के लिए गुरु की नितांत अनिवार्यता है। गुरु भी ऐसा जो सिद्धाश्रम आ जा चुका हो। इसके बाद भी सिद्धाश्रम की उच्च सत्ता चाहे तभी वह दोनों जा सकते हैं।वहां अपने योग साधना के माध्यम से ही साधक किसी भी इच्छा की पूर्ति कर सकता है संसार के किसी भी दृश्य को अपनी आंखों से देख सकता है।मृत्यु उसकी वह स्वार्थी होती है वह ऐसा दिन विधान है जहां मानव को पूर्ण शांति और अखंड आनंद की प्राप्ति होती है।
       कोई भी व्यक्ति नैतिक नियम के अनुसार साधना संपन्न कर अत्यधिक सरल और सामान्य रहते हुए पूर्व मुखी जीवन जीने का प्रयत्न करें तो अवश्य ही वह सिद्धाश्रम जा सकता है। इस प्रकार सामान्य जीवन जीने की कोई उपयोगिता ही नहीं है हम जीवन जीने के लिए बाध्य हैं क्योंकि यह सांसे ईश्वर की दी हुई दी जिसे हम ढो रहे है।जीवन की विशेषता तो यह है कि हम अपने प्रयत्नों से जीवन को उधर्वमुखी बनाकर उन आयामों को  छू सकें जिनका वर्णन हजारों वर्षों से होता आया है।
         अगर आप कायर और डरपोक हो तो लहरों के भय से समुद्र के किनारे ही जीवन भर बैठे रह जाओगे ऐसी स्थिति में तुम्हें कुछ गिने चुने घोंघे ही हाथ आ सकते हैं जो कि व्यर्थ है। अगर मोती पाना है तो समुद्र की गहरी खाई में उतरना पड़ेगा क्योंकि जीवन मैं अगर कुछ पाना है तो कुछ खोना भी पड़ेगा और तपस्या के उत्तम कोटी की साधनाएं और ऊर्ध्वमुखी जीवन प्राप्त करना असंभव नहीं है।
           हिमालय के मध्य में मानसरोवर और कैलाश पर्वत के बीच पूर्णता वर्फ से अच्छादित यह आश्रम अपने आप में अत्यंत भव्य और अद्वितीय है। यह एक ऐसा आश्रम है जो पद यात्रियों के द्वारा प्राप्त होना संभव नहीं है, जो साधनात्मक दृष्टि से शुद्ध धरातल पर अव्यवस्थित हो सकता है वहीं इसे पहचान पता है।मानसरोवर के पास से हम आगे बढ़ रहे थे तभी एक स्थल पर गुरुदेव रुक गए और भाव विभोर हो गए संभवतः​ उन्हें अपने जीवन के उन झणों का स्मरण हो आया होगा, जब वे वहीं कहीं साधनारत रहे होंगे।
       वे हिमालय के उस भाग से भलीभांति परिचित थे। वे आगे चल रहे थे और मैं बराबर उनके पीछे गतिशील था।साधनात्मक दृष्टि से मैंने अपने शरीर को इस रुप में बना लिया था जिससे कि मुझे सर्दी गर्मी भूख-प्यास का अनुभव ना हो।
    कुछ समय बाद ही मुझे एक बड़ा सा द्वार दिखाइ दिया जो बर्फ से आच्छादित होते हुए भी एक विशेष विद्युत ऊर्जा से चेतन युक्त था, जिसके बाहर कई सन्यासी सामान्यता विचरण कर रहे थे।जब हम उस द्वार के अंदर घुसे तो ऐसा लगा जैसे द्वार के बाहर तक तो फिर भी सर्दी का अनुभव होता है परंतु अंदर कदम रखते ही ठीक वैसा ही अनुभव हुआ जैसे की हम को एयर कंडीशन कमरे में आ गए हैं जहां ना तो किसी प्रकार की सर्दी का अनुभव हो रहा था और ना ही किसी प्रकार की कोई तीव्र हवा या प्राकृतिक प्रकोप हो ऐसा लग रहा था जैसे सर्वत्र शांति और अखंड ब्रह्मत्व का चिर निवास हो। एकबारगी ही मेरे सारे शरीर में अंत: चेतना और प्राण ऊर्जा प्रवाहमान हो गई जिससे सारा शरीर एक विशेष चेतना से आप्लावित सा हो गया।
      लगभग 1 मील तक चलने पर कोई भी सन्यासी या योगी दृष्टिगोचर नहीं हुए परंतु मैंने अनुभव किया की उस प्रकृति विहीन बर्फीले प्रदेश में जहां घास का एक तिनका भी नहीं रुकता वहां इस द्वार के भीतर आने पर दूर-दूर तक प्रकृति का साम्राज्य दिखाई देता है हरे-भरे नवीन प्रकार के पेड़ ,जो अत्यधिक ऊचेऔर छायादार थे, मैंने वहां पहली बार देखें।रास्ते के दोनो ओर इस प्रकार के पेड़ों के पार दोनों तरफ हजारों तरह के खिले हुए पुष्प उस भूखंड को इंद्र के नंदन कानन की संज्ञा दे रहे थे उन फूलों की मिली जुली गांध के कारण सारा शरीर मन और प्राण प्रफुल्लित हो उठे। एक बारगी ही सारा श्रम जाता रहा। जिधर भी मैं दृष्टि डालता उधर प्रकृति का एक विशिष्ट और अलौकिक दृश्य देखने को मिलता है ऐसा लगता है जैसे यहां प्रकृति ने आनंददायक​ चरणों में अपना हसत हसत श्रृंगार किया हो।
     लगभग 1 मील चलने पर हमें एक या दो  सन्यासी आते जाते दिखाई दिए, गौरवर्ण बलिष्ठ और आर्यों की तरह लंबा चौड़ा शरीर चेहरे पर एक विशेष प्रकार का ओज और कंधों पर लहराती हुई जटाएं उनके व्यक्तित्व को साकार कर रहे थे ।पूज्य गुरुदेव बिना रुके निरंतर गतिशील थे और मैं भी सारी प्रकृति को अपनी आंखों में समेटने की चेष्टा करता हुआ उनके पीछे चल रहा था।
यह आश्रम का मुख्य भाग प्रारंभ हो गया था, बाई तरफ एक विशाल हीर दिखाई दे रही थी जिसे सिद्ध योगा झील कहा जाता है।हम इस झील के बिल्कुल किनारे-किनारे चल रहे थे जहां तक दृष्टि जाती वहां तक नीले रंग का जल ही जल दृष्टिगोचर हो रहा था। झील के किनारे हजारों तरह के विशिष्ट पक्षी और राजहंस विचरण कर रहे थे, मैंने उच्च कोटि के राजहंस पहली यहां देखें। विभिन्न प्रकार के रंग बिरंगी चिड़िया और उन पक्षियों के कलरव से एक अजीब प्रकार का आनंददायक वातावरण बन रहा था जिसे शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है,कई सन्यासी और सन्यासनीया झील के किनारे किनारे बैठी हुई दिखाई दे रही थी जिनकी आंखों में आनंद का समुद्र लहरा रहा था।हमारी चलने की रफ्तार थोड़ी धीमी पड़ गई थी मन ऐसा हो रहा था कि जैसे मैं यह झील के किनारे ही रुक जाऊं।
   

अप्सरा का प्रत्यक्षीकरण संभव है?



क्या वर्तमान में भी अप्सरा का प्रत्यक्ष दिखाई देना संभव है?
        मैं कहता हूं कि निश्चित और नि:सन्देह उसका प्रत्यक्ष दर्शन और उसका साहचर्य संभव है। जिस प्रकार से हम किसी अन्य पुरुष को, पेड़ को या मकान को देख सकते हैं, उसी प्रकार से अप्सरा को प्रत्यक्ष देख सकते हैं, स्पर्श कर सकते हैं, और उसके साथ साहचर्य संभव है। क्या हम हवा को देख सकते हैं, सही परिभाषा कहे तो हम हवा को नहीं देख सकते, और हम यह दावे के साथ कह सकते हैं कि हवा होती है, जिससे हमारा जीवन गतिशील बना रहता है, इसी प्रकार अप्सरा भी होती है, और जीवन को गति एवं आनंद प्रदान करती रहती है। और प्रत्यक्ष रूप से भी प्राप्त होती है तथा उनके द्वारा निरंतर धन्य द्रव्य वस्त्र आभूषण प्राप्त होते रहते हैं।
     एवं अप्सरा से संबंधित जितनी भी साधनाएं हैं उनमें शशि दिव्य अप्सरा साधना अपने आप में सर्वश्रेष्ठ और अद्वितीय मानी गई है क्योंकि शशिदेव्या अप्सरा अत्यंत दयालु स्वभाव की है और शीघ्र ही सिद्ध होकर प्रत्यक्ष उपस्थित हो जाती है।इस साधना को सिद्ध करने के बाद शशिदेव्या अप्सरा जीवन भारत साधक के नियंत्रण में रहती है और साधक जो भी आज्ञा देता है उसका मनोयोग पूर्वक पालन करती है।
    शशि दिव्य अप्सरा साधना को प्रेमी के रूप में अनुभव और सुख प्रदान करती है। उसका निर्धनता को हमेशा हमेशा के लिए समाप्त कर देती है, और उसे अपने जीवन में संपन्न और ऐश्वर्यवान कर देती है। शशिदेव्या अप्सरा अत्यधिक सुंदर तेजस्वी और सौंदर्य की सकार प्रतिमा है। अत्यंत नाजुक कामनी और 16 वर्षीय युवती के रूप में साधक के सामने सज-धज कर बराबर बनी रहती है।साधक चाहे तो दृश्य रूप में और वह चाहे तो अदृश्य रूप में उसके सामने बनी रहती है और उसका कार्य करके प्रसन्नता अनुभव करती है।
    आज के युग में मेरी इन पंक्तियों को पढ़कर सामान्य व्यक्ति विश्वास नहीं करेगा, जिसको बुद्धि का अजीर्ण है, जो संसार में अपने आपको बुद्धिमान समझ बैठा है, उसको तो भगवान भी नहीं समझा सकता।जो पग पग पर आलोचना करने में ही अपनी शान समझते है, उनको साधना के बारे में कुछ बताना बेकार है।
भर्तृहरि ने एक स्थान पर कहा है कि उल्लू दिन को अपनी आंखें बंद किये रहता है और उसको यदि पूछा जाए तो वह दृढ़ता के साथ यही कहेगा आकाश मैं सूर्य उगता ही नहीं या सूर्य जैसा कोई देवता है ही नहीं और सूर्य से किसी भी प्रकार की प्रकाश या रोशनी नहीं होती तो तो इसमें सूर्य का क्या दोष? ठीक इसी प्रकार आज के वातावरण में सांस लेने वाले साधक भी इसी प्रकार से यदि अविश्वास की दीवार पर खड़े होकर कहे कि साधना होते ही नहीं या अप्सर के प्रत्यक्ष दर्शन संभव नहीं तो तपस्वियों शास्त्रों और गुरु का क्या दोष?
       अप्सरा साधना संभव है, और इसे कोई भी साधक मनोयोगपूर्वक संपन्न कर सकता है। जब मुझे इस साधना में लाभ हुआ है, जब मैंने इस साधना के माध्यम से सफलता पाई है, तो आप भी सफलता पा सकते हैं और यह साधना कठिन नहीं है, आवश्यकता इस बात की है कि आप में विश्वास हो, धैर्य हो, अपने मार्गदर्शक या गुरु के प्रति आस्था हो और हमारे शास्त्रो के प्रति विश्वास हो, क्योंकि विश्वास के द्वारा ही जीवन में सब कुछ संभव है जो प्रयत्न करता है वह सफल हो जाता है।
    किसी भी युद्ध को बिना अस्त्र-शस्त्र के नहीं जीता जा सकता, ठीक उसी प्रकार साधना में यंत्रों की आवश्यकता होती है, और उसके द्वारा ही साधना के युद्ध को जीता जा सकता है और सफलता भी प्राप्त की जा सकती है।

अप्सरा साधनाएं ही क्यों?

हम सौंदर्य की परिभाषा भूल गए हैं सौंदर्य साधना हमारे जीवन में रही ही नहीं, धन के पीछे भागते हुए हम अर्थ लोभी बन गए हैं, जिससे जीवन की अन्य वृतियां लुप्त सी हो गई है।
यह अप्सरा क्या है?
     भारतीय शास्त्रों में सौंदर्य को जीवन का उल्लास और उत्साह माना है,यदि जीवन में सौंदर्य नहीं है तो वह जीवन नीरस और उदास हो जाता है, हम में से अधिकांश व्यक्ति ऐसा ही जीवन जी रहे हैं, हमारे होठों पर मुस्कुराहट खत्म हो गई है, जिसके फलस्वरुप हम प्रयत्न करके भी खिलखिला नहीं सकते और मुक्त रूप से हंस नहीं सकते, मुस्कुरा नहीं सकते, एक प्रकार से हमारा जीवन बंधा हुआ सा बन गया है और एक जगह बंधे हुए पानी में सड़ांध पैदा हो जाती है इसी प्रकार रुका हुआ जीवन निराश और बेजान हो जाता है।
        इसके विपरीत यदि हम अपने शास्त्रों को टटोल कर देखें तो देवताओं ने और हमारे पूर्वज ऋषियों ने प्रमुखता के साथ सुंदर साधना संपन्न की है, सौंदर्य को जीवन में प्रमुख स्थान दिया है, देवताओं की सभा इंद्र सभा में नित्य अप्सराएं नृत्य करती थी।वशिष्ठ आश्रम में अस्थाई रूप से अप्सराओं का निवास था। विश्वामित्र ने अप्सरा साधना के माध्यम से जीवन को पूर्णता प्रदान की थी यही नहीं अपितु सन्यासी शंकराचार्य ने भी अप्सरा साधना संपन्न करने के बाद अपने शिष्यों को संबोधित करते हुए कहा था कि साधना के माध्यम से साधक को यह विश्वास हो जाता है कि उसका अपने मन पर और अपने इंद्रियों पर पूर्णत: नियंत्रण है इसके माध्यम से जीवन की वे प्रमुख वृतियां के जीवन में आनंद और हास्य का निर्माण करती है,वह वृतियां उजागर होती है और मनुष्य दीर्घायु प्राप्त करने में सफल हो जाता है। इस साधना के माध्यम से व्यक्ति के जीवन में अर्थ सुलभ आनंद और तृप्ति की किसी भी प्रकार से कोई न्यूनता नहीं रहती।
       जीवन में नारी शरीर के माध्यम से ही सौंदर्य की परिभाषा अंकित की गई है।यूं तो शास्त्रों में 108 अप्सराओं का विवरण वर्णन मिलता है, और इन सभी की साधनाओं के बारे में विस्तार से वर्णन है। अप्सरा सौंदर्य का सकार जीता जागता प्रमाण है। यदि यह प्रश्न प्रश्न पूछा जाए कि सौंदर्य क्या है तो उसे हम किसी अप्सरा के माध्यम से ही स्पष्ट अंकित कर सकते हैं।अप्सरा का तात्पर्य एक ऐसी देवत्व पूर्ण सौंदर्य युक्त 16 वर्षीय नारी प्रतिमा से है जो मंत्रों के माध्यम से पूर्णता अधीन होकर साधक के दुख में भी सुख की बिजली चमकाने में समान होती है उसे के तनाव के चरणो में आनंद प्रदान करने की सामर्थ्य रखती है जो नित्य सशरीर साधक के साथ दृश्य और अदृश्य रूप में बनी रहती है और प्रियतमा के रूप मैं उसकी प्रत्येक प्रकार की इच्छा पूर्ण करती रहती है।
      प्रिया का तात्पर्य प्रदान करना होता है, जो पानी की इच्छा नहीं रखता जिसमें केवल सामने वाले को सुख और आनंद देने की भावना होती है।और अप्सरा अपने विचारों से,अपने कार्यों से, अपने व्यवहार से और अपनी साहचर्य के माध्यम से साधक वह सब कुछ प्रदान करती है, जो उसकी इच्छा होती है।
     और वह इच्छा साधक के विवेक पर निर्भर है यह आवश्यक नहीं है कि अप्सरा केवल भोग्या के रूप में ही होती है, वरन मधुर वार्तालाप, सही मार्गदर्शन, भविष्य का पथ प्रदर्शन,निरंतर धन प्रदान करने की क्रिया भी अप्सरा के माध्यम से ही संभव है। इसलिए यह अप्सरा साधना साधकों के लिए और वृद्धों के लिए भी समान रूप से उपयोगी है। यही नहीं अपितु स्त्रियों के लिए भी अप्सरा साधना का विशेष महत्व बताया गया है जिससे कि उन्हें एक अभिन्न सखी मिल सके और उसके जीवन में आनंद और उत्साह प्रदान कर सके।
                 कुल मिलाकर अप्सरा सौंदर्य की सरकार प्रतिमा होती है। एक ऐसा सौंदर्य युक्त शरीर, एक ऐसा महकता हुआ, फूलों की डाली की तरह लचकता हुआ कामिनी नारी शरीर, को साधक को सभी दृष्टियों से पूर्णता प्रदान करने में सुख और आनंद देने में समर्थ है। यदि अप्सरा साधना को उचित और जीवन में आवश्यक बताया है तो मेरी राय में यह साधना जीवन का आवश्यक तत्व होना ही चाहिए।
   मैंने अपने जीवन में कई साधन संपन्न की है जब तक हम साधना क्षेत्र उत्तरते नहीं तब तक उसका एहसास भी नहीं होता, और जब हम साधना क्षेत्र में प्रवेश करते हैं, अपने मन को एकाग्र कर साधना क्षेत्र में आगे बढ़ते हैं, तो विविध प्रकार के अनुभव होते रहते हैं। विविध प्रकार के दृश्य और बिम्ब दिखाई देते रहते हैं। और जब हमे साधना में सफलता मिल जाती है तो हमारा जीवन ही बदल जाता है। हम मे आत्मविश्वास आ जाता है, और एक निश्चितता प्राप्त हो जाती है कि हम वर्तमान युग में भी साधना कर सकते हैं और उसमें पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकते हैं।
     

दिव्यांगना अप्सरा-2


मैंने मन ही मन उसे पाने का निश्चय कर लिया था क्योंकि उसके बगैर मेरा जीवन मुझे अधूरा सा लगता था, मैंने यह दृढ़ निश्चय कर लिया, कि जैसे भी संभव होगा मैं उसे अपने प्रयत्नों द्वारा प्राप्त करके ही रहूंगा।
                  यह सोच मैं पुनः उनके पास पहुंचा और उनसे हाथ जोड़कर विनती की- मुझे ऐसी विधि बताइए जिससे मैं उसे प्राप्त करने में समर्थ हो सकू, मैं जब पहली बार आपसे मिला था उसी दिन से मैंने मन-ही-मन आपको अपना गुरु स्वीकार कर लिया था।
      मैं उनके मना करने के बावजूद भी अपनी जिद्द पर अड़ा रहा और कई दिन- रात उनकी सेवा में,आज्ञा पालन में व्यतीत कर दिए।
       एक दिन उन्होंने मुझे अपने पास बुलाकर कहा-"मैं तुम्हारी सेवा से अत्यधिक प्रसन्न हुं और तुम्हें यह विशेष आशीर्वाद देता हूं कि तुम जो भी मुझसे मांगोगे तुम्हारी वह इच्छा अवश्य पूरी हो जाएगी।
     तब मैंने कहा-"मेरी तो पहली और आखिरी इच्छा ही यही है कि मैं दिव्यांगना को प्राप्त कर सकूं, और यही मेरे जीवन का ध्येय है"।
     तब उन्होंने "तथास्तु" कहते हुए मुझे उस श्रेष्ठ साधनों को संपन्न करने के लिए कहा जिसके माध्यम से उस दिव्यांगना अप्सरा को प्राप्त किया जा सकता है, और साथ में यह भी बताया कि दिव्यांगना को प्रेमिका रूप में आसानी से सिद्ध किया जा सकता है।
मैंने बड़ी मेहनत लगन और उमंग के साथ उस अद्वितीय साधना को उनके बताए अनुसार सिद्ध करे उसे प्रेमिका रूप में प्राप्त कर, व्यवहारिक और सामाजिक मर्यादा के अनुसार उससे विवाह कर लिया, विवाह के बाद ही मैं और दिव्यांगना दोनों ही उन सन्यासी बाबा का आशीर्वाद ग्रहण करने उनके आश्रम में पहुंचे और उन्हें श्रद्धा पूर्वक भक्ति भाव से प्रणाम कर आशीर्वाद ग्रहण किया।
      गुरुदेव ने प्रसन्नता के साथ अपने दाहिने हाथ के अंगूठे को उसके मस्तक पर रखा और दिव्यांगना को उसके वास्तविक स्वरूप का परिचय दिया इससे उसे वह स्मरण हो आया कि वह साधारण स्त्री नहीं अपितु दिव्यांगना अप्सरा है जो इस पृथ्वी लोक के प्राणी नहीं है वरन् इंद्र के सभा की श्रेष्ठतम अप्सराओं में से एक है और तभी उसे यह आभास भी हुआ कि यह जो मेरे सामने सन्यासी वेशभूषा में है वह और कोई नहीं,वैश्रब्य ऋषि के पिता ही हैं जिनके श्राप से मुझे मानवी रूप धारण कर इस पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ा, साथी ही साथ यह भी ज्ञात हुआ कि जो मेरे पति हैं वह और कोई नहीं स्वयं वैश्रव्य ऋषि ही हैं।
    यह दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो उनके चरणों से लिपट कर रोने लगी और अपने अपराधों की क्षमा मांगते हुए उनके करुणामयी नेत्रों​ की ओर याचन की दृष्टि से देखने लगी।
   सन्यासी ने गंभीर स्वर में कहा उठो और मेरी बात ध्यान से सुनो उन्होंने दिव्यांगना को बताया तुम्हारी मुक्ति इससे विवाह करके ही संभव थे क्योंकि वैश्रब्य ने जब से तुम्हारी एक झलक देखी थी उसी समय से इसका मन तुम्हारे प्रति आसक्त हो गया था और तुम्हें पा लेने की लालसा इसके मन में एक झीना सा आवरण लिए मचल उठी थी,  कारणजिस कारण इसकी तपस्या भंग हो गई और तुम्हारे प्रति इस प्रकार के चिंतन के आ जाने से यह उन गुहाया एवं श्रेष्ठ साधनाओं को संपन्न ना कर सका इसके मन में भी मानव रूप लेकर तुम्हें प्राप्त कर लेने की इच्छा प्रगट हो गई जिस कारण मजबूर हो मुझे इसको साधारण मानव बनकर तुम्हें प्राप्त कर लेने का आशीर्वाद  देना पड़ा-मानव रूप धारण करने के बाद भी तुम विशिष्ट साधनाओं को संपन्न कर ही दिव्यांगना को प्राप्त कर सकोगे।इसने उस साधना को संपन्न किया और तुम्हें प्रेमिका व पत्नी के रुप में प्राप्त कर सका।अब तुम इसके मन को स्थिरता प्रदान करें इसे गुहा साधनाओं में सिद्धाहस्त बनाने में सहायक बनोगे इस प्रकार दिव्यांगना और वैश्रब्य का मिलन इस धरा पर संभव हुआ।
     यह एक पौराणिक कथा थी जिसे काठमांडू में रहने वाले एक साधक ने एक प्राचीन पुस्तक में पढ़ा था और जिसे पढ़कर उसके मन में भी दिव्यांगना अप्सरा को प्राप्त करने की इच्छा जागृत हो गई।
  उस साधक ने भी उस पुस्तक में लिखी हुई विधि अनुसार इस विधि से वैश्रव्य ने साधना संपन्न की थी उस साधना को संपन्न किया जो इस प्रकार है-

साधना समय----
यह 3 दिन की साधना है जिसे लगातार तीन शुक्रवार को संपन्न करना चाहिए या फिर रवि पुष्य या गुरु पुष्य योग में इसे संपन्न करने से तीन शुक्रवार तक इस साधना को संपन्न नहीं करना पड़ता यह वैश्रब्य ऋषि द्वारा संपन्न की गई दुर्लभ और सर्वश्रेष्ठ साधना है जिसे स्त्री पुरुष कोई भी संपन्न कर सकता है।

सामग्री--दिव्यांगना यंत्र,दिव्यांगना माला

साधना विधि:-साधक रात्रि के समय इस साधना को संपन्न करें स्नान आदि कर शुद्ध सुंदर एवं आकर्षक वस्त्र धारण कर ले, तथा पहले से ही पूजा सामग्री एकत्र करके रख लें जिसमें एक थाली में धूप,दीप, कुमकुम, अक्षत, गुलाब या सुगंधित फूल की माला एक साबुत सुपारी, मेवे का नैवेद्य रखा होना चाहिए तथा साथ ही दिव्यांगना यंत्र और दिव्यांगना माला जो कि वैश्रब्य ऋषि द्वारा प्रमाणित मंत्रों से चेतन एवं प्राण प्रतिष्ठित हो पहले से ही मंगवा कर रख लेना चाहिए।
  इसके पश्चात साधक पूजा गृह को पहले से ही जल से धोकर स्वक्ष कर ले और अकेले ही साधना काल में वहां बैठकर मंत्र जप संपन्न करें, अन्य किसी को ना आने दे।सर्वप्रथम गुरुदेव का संक्षिप्त मानसिक पूजन संपन्न करें और लकड़ी के एक बजोट पर नया गुलाबी वस्त्र बिछा कर उस पर यंत्र को  स्थापित कर दें।चावल की एक ढेरी बनाकर उस पर सुपारी रख दें, जो कि गणेशजी का प्रतीक है, फिर भगवान गणपति का पूजन करें तथा यंत्र का पूजन प्रारंभ करें सर्वप्रथम कुमकुम फिर अक्षत उसके बाद पुष्प माला चढ़ा दे और मेव का भोग लगाएं।
  इस प्रकार पूजन प्रारंभ करें फिर हाथ में जल लेकर संकल्प ले मैं इस कारण हेतु इस साधना को संपन्न कर रहा हूं ऐसा कह कर जल को जमीन पर छोड़ दें, फिर उत्तराभिमुख हो आसन पर बैठकर 21 माला "दिव्यांगना माला" से निम्न मंत्र का जप करें-
ऊं ह्रीं दिव्यांगना वशमानाय ह्रीं फट्
मंत्र जप संपन्न करने के पश्चात माला को अपने गले मे धारण कर ले और यंत्र को वहीं पर पूजा स्थल में रखा रहने दे। तत्पश्चात गुरु आरती संपन्न करें और भोग ग्रहण कर ले, इस प्रकार 3 शुक्रवार तक मंत्र जप संपन्न करें ऐसा करने से उस साधक को सफलता प्राप्त होती ही है, लेकिन आवश्यकता है उस साधना के प्रति पूर्ण श्रद्धा और विश्वास की।
      साधना काल में साधक को विभिन्न विभिन्न प्रकार की अनुभव होते हैं कभी सुगंध आती हुई महसूस होती है तो कभी उसके स्पर्श का एहसास होता है या कभी स्वप्न में उसके दर्शन हो जाते हैं तो कभी साक्षात स्वरूप में भी वह प्रगट हो जाती है।इस प्रकार की अनेकों घटनाएं जो व्यक्ति को आश्चर्यचकित कर देने वाली होती है इस साधना काल में घट जाती है।
            इस साधना को संपन्न करने के 3 दिन पश्चात वह यंत्र और सभी सामग्री गुलाबी वस्त्र में ही लपेटकर किसी नदी, कुएं में विसर्जित कर देना चाहिए।
     इस साधना को जब उस साधक ने सिद्ध किया तो इस साधना के दौरान उसे विशेष अनुभव हुए जिसने उसके शरीर के रोम-रोम में एक पुलकित कर देने वाली सिहरन से भर गई थी।उसे प्रेमिका रूप में सिद्ध कर वह बड़ा ही सुखमय और आनंददायक जीवन व्यतीत कर रहा है क्योंकि वह अप्सरा उसकी पग-पग पर आने वाली बाधाओं से उसे आगाह कर देती है और उसके जीवन में प्रेममय वातावरण को प्रदान करती है।
        आज वह साधक सभी दृष्टियों से पूर्ण है धन-संपत्ति ऐश्वर्य,समृद्धि,सौंदर्य सभी कुछ उसके पास है जो कि इस दिव्यांगना की ही देन है और वह समस्त प्रकार के भौतिक सुखों को प्राप्त कर एक श्रेष्ठ एवं पूर्ण भौतिक जीवन जीने में समर्थ हो सका है,तथा इसके साथ ही साथ विभिन्न साधनों को भी कुशलता से संपन्न कर रहा है।

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मैं और मेरी प्रियतमा सौंदर्या-2


 उन्होंने बताया कि पूर्व जन्म में भी मैं उन्हीं का शिष्य था, और उन्हीं के प्रांगण में रहकर ही मैंने विशिष्ट साधनाएं में सिद्धि प्राप्त की थी ,जिनमें से एक "सौंदर्या यक्षिणी साधना" भी थी जिसे मैंने प्रेमिका रूप में सिद्ध किया था और वह मुझे प्रेमिका रूप में सिद्ध भी हुई, उसने मुझे अपनी सामीप्यता भी प्रदान की, लेकिन उसके प्रति कुछ अशिष्टता पूर्ण व्यवहार हो जाने से वह मुझसे रुष्ट हो गई और यह कहकर- "अब वह कभी नहीं आएगी" लुप्त हो गई ।
                       कुछ समय उसके साथ आनंददायक क्षणों को बिता देने के कारण मुझे अपनी गलती का एहसास हुआ और पुनः उसे साधना द्वारा प्राप्त कर लेने का निर्णय कर उस अद्वितीय साधना को मैंने संपन्न किया परंतु उसमें सफलता हाथ ना लगी,जिस कारण मैं बहुत दुखी रहने लगा और गुरुदेव से प्रार्थना की कि मैं पुणे उसे प्रेमिका रूप में सिद्ध करना चाहता हूं, क्योंकि उसके चले जाने से विभिन्न प्रकार की विपरीत परिस्थितियों ने मुझे जकड़ लिया और जब मैं शारीरिक मानसिक तथा आर्थिक दृष्टि से भी कमजोर हो गया तब मुझे ज्ञात हुआ कि मेरे जीवन की सफलता और पूर्णता के का श्रेय तो उस यक्षणी को ही जाता है उसने मुझे हर दृष्टि से संपन्न और आनंद प्रदान किया था।
               मैंने गुरुदेव से इस साधना में पुनः सफलता ना मिल पाने के कारण पूछा तो उन्होंने कहा- मुझे उस यक्षिणी के साथ अत्यधिक माधुर्य, कोमलता और प्रेमय व्यवहार करना चाहिए था क्योंकि अभद्रता पूर्ण व्यवहार से वह अपनी दी हुई सुख संपन्नता आनंद को छीन लेती है और उस साधक के जीवन से हमेशा हमेशा के लिए चली जाती है।
फिर उन्होंने कहा तुमने अपनी गलती का एहसास किया है इसलिए मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि तुम्हें वह प्रेमिका रूप में ही प्राप्त हो लेकिन यह इस जीवन में तो संभव नहीं है "वह अपमानित होकर गई है इसलिए मैं भी उसे वापिस आने के लिए बाध्य नहीं करूंगा तुम्हें इस जन्म में तो इस बात का प्रायश्चित करना ही पड़ेगा"
       चुकीं तुम मेरे शिष्य रहे हो और तुमने मेरी हर आज्ञा का पालन किया है इसलिए मैं तुम्हें यह आशीर्वाद देता हूं कि अगले जीवन में तुम्हारी भेंट उससे अचानक ही होगी और हर क्षण वह तुम्हारी परेशानी,समस्याओं में साए की तरह तुम्हारे साथ ही खड़ी मिलेगी, जिससे कि तुम्हें जीवन में किसी प्रकार की कोई कठिनाइयां प्राप्त नहीं होगी "किंतु वह तब तक तुम्हें प्राप्त नहीं हो सकती जब तक तुम पुनः मेरे पास आकर सौंदर्या यक्षिणी साधना की सिद्धि नहीं कर लोगे।"

       इस पूर्वजन्म कृत घटना को सुनकर मैं आश्चर्यचकित रह गया और शीघ्र ही गुरुदेव से आशीर्वाद ले मैंने सौंदर्या यक्षिणी साधना को सिद्ध कर अपनी प्रेमिका रूप में उसे प्राप्त कर लिया और अब मैं जब भी उसे याद करता हूं वह मेरे सामने साकार हो जाती है। इस साधना को किस प्रकार से मैंने संपन्न किया उसका वर्णन प्रस्तुत है---

                           -:साधना विधि:-
इस साधना को किसी भी शुक्रवार के दिन पूर्ण श्रद्धा के साथ कोई भी स्त्री पुरुष संपन्न कर सकता है
1. सौंदर्या यंत्र
2. यक्षिणी वश्य माला
         साधकों को चाहिए कि वह अत्यंत ही सुंदर और नए वस्त्र पहनकर साथ ही  गुरु चादर ओढ़ कर पूजा स्थल में बैठ जाए साधना किसी एकांत कमरे में ही करें इसमें उसके अलावा अन्य कोई प्रवेश ना कर सके।
            पूजा स्थल को स्वछता से साफ कर चारों तरफ के खिड़की और दरवाजे बंद करके ही पूर्व दिशा की ओर मुख कर बैठ जाएं तथा कमरे में सुगंधित इत्र, सुगंधित धूप, अगरबत्ती प्रज्वलित कर दें और अपने वस्त्रों पर भी गुलाब का या अन्य सुगंधित इत्र लगा लें जिससे की एक सुंदर वातावरण बन सके जो मन में खुशी उमंग और आनंद पैदा कर सके।
     सर्वप्रथम साधक को चाहिए कि वह पूजा स्थल पर सौंदर्या यंत्र को किसी भी आकर्षक रंग के नए वस्त्र पर स्थापित कर दे साधक को गुलाब के दो पुष्प मालाओं को पहले से ही मांगा कर रख लें जिसमें से एक पुष्पमाला गुरुदेव के चित्र के ऊपर चढ़ा दे और दूसरी उसे यंत्र के सामने रख दे।
            साधक को संयंत्र पर कुमकुम अक्षत आदि चढ़ाएं और उसके सामने एक घी का दीपक प्रज्वलित कर दे सामने खीर का या अन्य किसी भी चीज का भोग आदि लगाएं फिर गुरु का ध्यान कर वह प्रार्थना करें- मुझे इस साधना में सिद्धि प्राप्त हो, और मैं जिस रुप में भी चाहूं उसे प्राप्त कर सकूं, ऐसा मन ही मन प्रार्थना कर फिर साधना आरंभ करें।
    इसके पश्चात वह निम्न मंत्र का "यक्षिणी वश्य माला" से 21 माला जप संपन्न करें, यह माला भी मंत्र सिद्धि एवंं प्राण प्रतिष्ठित होनी चाहिए।
मंत्र............

 ओम प्रिय सौन्दर्य यक्षिण्यै फट्

  मंत्र जप संपन्न कर साधक उस भोग को ग्रहण कर ले और उस यंत्र एवं माला को किसी नदी हुए या तालाब में विसर्जित कर दे। इस साधना को सिद्ध कर साधक अपने भौतिक जीवन की परेशानियों से मुक्ति पा सकता है और सुख संपन्नता एवं वैभव के साथ-साथ आनंददायक जीवन जीने में भी सक्षम हो सकता है। इस साधना को वैसे तो किसी भी माता,बहिन, सखी, प्रेमिका के रूप में सिद्ध किया जा सकता है किंतु प्रेमिका रूप में सिद्ध करने पर साधक को शीघ्र ही सफलता प्राप्त होती है और इस रूप में यह उसके लिए विशेष अनुकूल सिद्ध होती है

हिमालय के योगी


स्वामी व्यंकटेशानंद हिमालय के उच्च कोटि के योगियों में गिने जाते हैं अपने जीवन में स्वामी जी जज रहे हैं परंतु यौवन काल में ही उनका मन ग्रस्त से ऊब गया तो वह सब कुछ छोड़ कर सन्यास स्वीकार कर लिया और इसके बाद इनका अधिकांश जीवन हिमालय में ही बीता।
      साधनाओं के क्षेत्र में यह अद्वितीय हैं और मेरे गुरु भाई हैं इनके साथ में लगभग 3 वर्षों तक रहा और इन 3 वर्षों में मैंने अनुभव किया कि गुरु के प्रति इनकी निष्ठा और भक्ति अनन्य रही है अपने पद और विद्वता का घमंड इन्हें कभी भी नहीं रहा स्वामी निखिलेश्वरानंद जी के चरणों में रहते हुए शिष्यत्व का जो उच्च आदर्श और मापदंड इन्होंने स्थापित किया वह अपने आप में अनन्यतम रहा है।
          चर्चा के दौरान अपने अनुभव बताते हुए स्वामी जी की आंखें डबडबा आई, बोले- मुझे वह गुरु पूर्णिमा याद है जब हम दो ढाई हजार शिष्य मिलकर गुरुपूजन में लीन थे सामने गुरुदेव बैठे हुए थे और हम बारी-बारी से उनकी अभ्यर्थना करते चरण स्पर्श करते और मनोवांछित वरदान प्राप्त कर अपने स्थान पर लौट आते।
                        उस दिन स्वामीजी "मूड" में थे बोले- आज इस विशेष अवसर पर आपको सिद्धाश्रम साधना संपन्न करवाएंगे, जो कि हमारे जीवन की महत्वपूर्ण साधना कही जाती है।
      उस रात्रि कि उन्होंने सिद्धाश्रम साधना जिस स्नेह के साथ संपन्न कराई वह अनिवर्चनीय है, साधना तो एक बहाना है, यदि वे चाहे और उनके मन में जच जाए तो कठिन से कठिन साधनाएं भी भी 5:10 मिनट में ही सिद्ध करा देते हैं, इस प्रकार की सिद्धि में उनकी स्वयं की साधना और तपस्या का भी योगदान रहता है, रात्रि को उनके परिजनों से हमने जो सिद्धाश्रम संगीत सुनना वह अपने आप में अद्वितीय था आज भी वह सभी शिष्य उस रात्रि को भूले नहीं होंगे, जब उन्होंने सारी रात उस दिव्य रमणीक संगीत का आनंद लिया था।
          मैंने इस बात का अनुभव किया है कि उन्हें सैकड़ो हजार साधनाएं सिद्ध है परंतु अपने आप मेरे इतने निष्प् से रहते हैं कि बाहर से कुछ पता ही नहीं चलता,वे अपने शिष्यों की कई दृष्टियों से परीक्षा लेते हैं और पूर्ण आश्वस्त होने पर ही अपने पास की सारी सिद्धियां उसे प्रदान कर देते हैं।
     चर्चा के दौरान स्वामी व्यंकटेशानंद ने बताया कि गुरु कृपा से ही मैं उसके बाद सिद्धाश्रम में प्रवेश पा सका और आज मैं जो कुछ भी हूं तथा सिद्धाश्रम में जो राजस्थान मुझे प्राप्त हुआ है वह गुरु कृपा के द्वारा ही संभव हो सका है।
           वास्तव में ही स्वामीजी अद्वितीय साधक और सिद्ध बन सके हैं पुरुष भी उनके हाथ से गुरु स्मरण होते ही प्रेम का वेग उमड़ पड़ता है तथा सारा शरीर रोमांचित हो उड़ता है।

गगन मंडल घर मेरा:-

 स्वामी माधवानंद जी गंगोत्री के आगे गोमुख पर रहने वाले श्रेष्ठ योगी है  इन्हें हिमालय में साधक उड़न बाबा के नाम से जानते हैं,क्योंकि इन्हें वाववीय सिद्धि प्राप्त है,जिसके माध्यम से वे एक स्थान से दूसरे स्थान पर मन के वेग से स्वास्थ्य शरीर आ जा सकते हैं।
    गुरु चर्चा के दौरान उन्हें अपने गुरु स्वामी प्रणावानंद जी का स्मरण हो आया, मेरे पूछने पर कि आपके गुरु की अभी कितनी आयु है तो वह मुस्कुराए और फिर सारे अमित शब्दों में बताया योगियों की आयु वर्ष माह दिन से नहीं आंखें जा सकती, सामान्य शारीरिक दृष्टि से इनकी आयु 50 वर्ष हो सकती है पर
आध्यात्मिक दृष्टि से उस व्यक्ति की आयु 300 वर्ष भी हो सकती है क्योंकि साधनात्मक दृष्टि से आयु की गणना उनके जन्म से नहीं की जाती,अपितु अपने पिछले जीवन के आध्यात्मिक वर्षों को भी उनकी आयु का भाग माना जाता है इसी प्रकार योगी गृहस्थ में पूर्ण गृहस्थी में रहते हुए भी योगी जीवन जी सकता है,क्योंकि ऐसे व्यक्तियों की बाहरी देह ग्रहस्थ जीवन से संबंधित होती है पर सूक्ष्म शरीर से हिमालय में साधनारत रह सकते हैं सामान्य अलौकिक व्यक्ति यही अनुभव करेंगे कि यह व्यक्ति जीवन भर ग्रस्त मे हीं रहा था फिर इसने हिमालय में या किसी अन्य स्थान पर साधना कब की होगी?
    पर यही पर वे भूल कर बैठते हैं क्योंकि वे लौकिक भाषा में ही शरीर को समझते हैं एक उच्च कोटि का योगी 40 वर्षों तक जन्म से लगाकर अब तक की गृहस्थ में ही रहा हो परंतु इसके साथ ही साथ वह सूक्ष्म शरीर से हिमालय में साधनारत भी रह सकता है, और 25 वर्ष तक वह सूक्ष्म शरीर से तपस्वी की तरह योगी और सन्यासी की तरह साधन संपन्न कर सकता है।
   ऐसी स्थिति में आप ग्रहस्थ पड़ोसी या संसारिक व्यक्ति तो अपनी अल्पबुद्धि से यही समझेंगे कि वह व्यक्ति जो जीवन भर ग्रहस्थ के कार्यों में लिप्त रहा है और यही अर्थों में गृहस्थ रहा है फिर इसने तपस्वियों सन्यासी बनकर साधना कब की होगी पर उनके अलौकिक ज्ञान की निम्नता है उच्च कोटि की गरिमापूर्ण गृहस्थ संसारिक भोगो में रहते हुए भी सूक्ष्म शरीर से हिमालय में साधना संपन्न कर लेता है इस प्रकार 25 वर्ष तक या 30 वर्ष तक गई साधना उसकी संयासी साधना ही कही जा सकती है।
    स्वामी जी स्वयं गोमुख पर पूर्ण ग्रहण स्वरुप में रहे हैं और जन्म से लगाकर आज तक ग्रहस्थ रूप में रहते हुए भी सूक्ष्म शरीर से 80 वर्षों तक सन्यासी जीवन में साधना लीन हुए हैं ,अलौकिक आर्थो में उनकी आयु 50 वर्ष की हो सकती है और 50 वर्षों में 1 दिन भी उन्होंने भगवे वस्त्र धारण नहीं किए हैं फिर भी उनकी आयु 300 वर्ष की है और 80 वर्ष पूर्णताः सन्यासी जीवन जीते हुए साधनारत हैं।
   उनका यह कथन प्रमाणिक है और उनके इस तथ्य के पीछे हमारे ऋषियों का सुधीथर्त चिंतन है प्रत्येक गुरु पूर्णिमा को वे अपने गुरु के चरणों में बैठते हैं उस समय उन्हें देखकर विश्वास नहीं होता कि इनके पास कुछ सिद्धिया कभी रहे भी होंगी।
 
गुरु चरण में डेरा:- 
     
  आदि बद्रीनाथ के आगे दिव्य आश्रम के संस्थापक स्वामी गिरीशानंद अपने आप में उच्च कोटि के योगी और विद्वान हैं, उन्होंने सिद्धि योग के क्षेत्र में कुछ नवीन प्रयोग किए हैं और आज भी हिमालय के श्रेष्ठ योगियों में गिने जाते हैं।
    वह मेरे गुरु भाई रहे हैं और सिद्धाश्रम में हम दोनों ने साथ ही साथ प्रवेश लिया था।
          गुरु पूर्णिमा और गुरु चर्चा चलने पर उन्होंने भाव विभोर होकर कहा- "मेरा जीवन तो गुरु चरणों" में ही लीन है वह चाहे सन्यासी रूप में रहे या गृहस्थ रूप में ,वह चाहे सूक्ष्म शरीर से हमारे साथ हो या सामान्य देह से दूर हो इससे मेरे चिंतन में कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि मैं प्रती क्षण दिव्य दृष्टि के द्वारा उन्हें देखता रहता हूं और इस प्रकार अपनी आंखें तृप्त बनाए रखता हूं।
  यूं तो गुरु की महिमा गुरु ही जाने यदि हम हैं उनके ज्ञान उनके चिंतन उनके रहस्य को जान ले तो तो फिर हम शिष्य ही क्यों रहेंगे? हम स्वयं ही गुरु बन जाएंगे परंतु मैं उनके गृहस्थ जीवन और गृहस्थ शिष्य को देखता हूं तो आश्चर्यचकित रह जाता हूं कि यह कैसा गृहस्थी शिष्य है जो होठों से गुरु शब्द का उच्चारण करते हैं पर हृदय में किसी प्रकार का कोई समर्पण भाव पूर्णता के साथ नहीं होता। प्रारंभ में उनके प्रांगण में आकाश-पाताल एक कर लेते हैं पर स्वार्थ मिटाने पर भी मुंह मोड़ कर खड़े हो जाते हैं।
               SSC शिव और ऐसे वातावरण के बीच भी यह जिस प्रकार से अधिक हैं और जिस प्रकार से तिल तिल कर अपने आप को जला रहे हैं यह आश्चर्य की बात है यह तो उसी व्यक्ति का धर्म है कि वह इतने विरोधी वातावरण के बीच भी मुस्कुराता रहता है, हम यहां से देख-देखकर विचलित होते हैं, मैं ही नहीं सभी गुरु भाई तड़प उठते हैं परंतु उनकी आज्ञा से बंधे हुए हैं और विवश है।
     और ये गृहस्थ शिष्य उस महान व्यक्ति से बहुत छोटी छोटी चीजें मांगते हैं, कोई रोग मुक्ति की याचना करता है तो कोई पारस्परिक पति-पत्नी के झगड़ो में समाधान चाहता है, कोई व्यापार में उन्नति चाहता है तो कोई आर्थिक सुरक्षा प्राप्त करना चाहता है गंगा के किनारे जाकर भी यह ग्रहस्थ लोग चुल्लू भर पानी पीकर ही तृप्त हो जाते हैं मेरे लिए तो यही आश्चर्य की बात है।
              गुरु पूर्णिमा की चर्चा चलने पर उन्हें सिद्धाश्रम कि वह गुरु पूर्णिमा याद हो आई, जब सिद्ध योगा झील के किनारे स्वामी जी गुरु वंदना की थी, वह सिद्धाश्रम की गुरु पूर्णिमा तो अत्यंत सौभाग्यशाली साधकों को ही देखने को मिलती है,- ऐसा कहते कहते स्वामी जी की आंखें डबडबा आई और वह कहीं किसी और ख्यालों में डूब गए।
                योगीराज अरविंद......
                         योगीराज अरविंद पूर्णता ग्रहस्थ हैं और मेरे गुरु भाई हैं देह से उनकी आयु लगभग 40 वर्ष है परंतु योगिक दृष्टि से उनकी आयु 115 वर्ष से भी कुछ ज्यादा है जन्म से लगकर अभी तक वह या तो अपने शहर में ही रहे हैं या गुरु चरणों में समय बिताया है परंतु सुक्ष्म शरीर से लगभग 20 वर्ष उन्होंने हिमालय में साधना की है कई लोग उनकी आलोचना करते हैं कि स्वामी अरविंद योगी कैसे हो सकते हैं, जबकि उन्होंने हिमालय का मुंह ही नहीं देखा हमने तो उन्हें अब तक इसी शहर में देखा है, उनकी पत्नी है, पुत्र-पुत्रियां हैं ग्रहस्थ में डूबे हुए हैं पर ऐसा कहने वाले सामान्य व्यक्ति है जो कि यौगिक शब्दों ,भाव और आर्थो को नहीं समझते।
    इस संबंध में चर्चा चलने पर उन्होंने कहा मैं स्वयं इस प्रकार की तुक्ष्य आलोचनाओं से विचलित अवश्य होता हूं परंतु ऐसे लोगों को समझाना और अस्वस्त कराना अत्यधिक कठिन होता है ,जिनके मन में संदेह भ्रम और कुतर्क होता है वह कुतर्क पर ही डटे रहते हैं, इसलिए ऐसी स्थिति में सर्वथा शांत और चुप रहना ही ज्यादा श्रेष्ठकर होता है। मैंने कभी भी इस प्रकार की आलोचनाओं का जवाब नहीं दिया यद्यपि मेरे ऊपर पत्र पत्रिकाओं में हल्के स्तर से कई प्रकार के आरोप लगाए गए, पर मैं सर्वदा शांत हूं क्योंकि इस प्रकार के कुतर्कों का जवाब देने से एक और कुतर्क बड़ेगा और मानसिक टेंशन में वृद्धि ही होगी।
वास्तव में ही स्वामी अरविंद एक अद्वितीय साधक हैं और शीघ्र ही सीधा आश्रम में प्रवेश करने वाले हैं उन्होंने उस स्तर को प्राप्त कर लिया है जिसे श्रेष्ठ अस्तर कहा जाता है गुरु पूर्णिमा की चर्चा चलने पर उन्होंने कहा मैं प्रत्येक गुरु पूर्णिमा के अवसर पर गुरु के चरणों में रहता हूं और यह दिन मेरे लिए स्मरणीय और ऐतिहासिक बन जाता है।

दिव्यांगना अप्सरा


"अप्सरा" शब्द सुनते ही एक नारी सौंदर्य हमारे मानस में अपनी छवि प्रस्तुत कर देता है,ऐसा सौंदर्य, जो अपने आप में अनूठा हो, अद्वितीय हो, अप्रतिम हो, क्योंकि सौंदर्य वही होता है जो किसी के भी मन को छू ले जो किसी को भी अपनी ओर आकर्षित कर ले.......... और फिर पूरे संसार का आधार ही सौंदर्य है ................तो ऐसा उमंगीत कर देने वाला, आनंदित कर देने वाला सौंदर्य कोई क्यों ना प्राप्त करना चाहे !  
                    अत्याधिक आकर्षित उमंगित और आनंदित कर देने वाली थी वह काया,जिसने मुझे वेशुध कर दिया था....
जब तक उसे एक बार ना देख लेता चैन नहीं पड़ता बेचैन हो जाता उसे देखे बिना...... पर ठहर कर जरा सोचा, कि ऐसा क्यों है?
       क्या हो गया है मुझे मेरा दिल मेरे बस में नहीं है। यह मेरे मन पर किसका आधिपत्य हो गया है, इसी विचार में करवटे बदलते बदलते रात गुजर जाती....... जो आंखें किसी स्त्री की तरफ नहीं उठती थी, वो इस कार्य की इतनी वशीभूत क्यू हो गई है?
....... और क्यों ना होती ऐसी रूपसी को देखकर उसको देखते ही मन में उसे पाने की हलचल सी मच जाती....
उसका रूप सौंदर्य अपने-अपने में अद्वितीय था..... उसे देखकर ऐसा लगता कि जैसे विधाता ने उसके एक एक अंग प्रत्यंग को बड़ी कुशलता के साथ गढा है, उसका सौंदर्य ऐसा अदभुत था जो उसे समान्य-नारी सौंदर्य की श्रेणी से अलग दर्शाता था।उसे देखकर ऐसा अनुभव होता जैसे वह एक साधारण स्त्री ना होकर सौंदर्य की देवी हो, कभी-कभी तो ऐसे भी लगने लगता कि वह इस पृथ्वी लोक की कन्या ना होकर किसी अन्य लोगों की सुंदर प्रतिमा हो, क्योंकि आज तक पृथ्वी पर मैंने तो कभी ऐसा आश्चर्यचकित कर देने वाला सौंदर्य देखा ही नहीं था।
          उसके देखने, उसके बोलने,उसके चलने की अदा अपने आप में अनोखी और किसी के भी मन को बेकाबू कर देने वाली थी...........ऐसी कि उसे देखकर कोई भी अचंभित रह जाए, एक मूर्ति बन ठगा सा खड़ा रह जाए उसकी अदाये उसे किसी समान्य स्त्री से अलग ही घोषित करती थी।
ऐसा क्या था उसके सौंदर्य में जिसने मेरा सब कुछ लूट लिया था इसी ख्याल में डूबा रहता मैं....और मन ही मन उस से प्रेम कर बैठा,अब उसको पा लेना ही मेरी मंजिल मेरा लक्ष्य हो गया....... किंतु उस जादु कर देने वाली रूपसी में आकर्षण के साथ ही इतना अधिक तेज भी था,कि मेरे पांव वहां तक ना जा पाते, मेरे होंठ अपने प्रेम का इजहार तक ना कर पाते, ऐसा क्यों होता कुछ समझ में नहीं आता।
    ........ और इसी कारण मैं शारीरिक और मानसिक दोनों रूपों से स्वस्थ रहने लगा। मेरे इस अवस्था को देखकर घर के सभी सदस्य घबरा गए अच्छे से अच्छा इलाज कराने पर भी मेरा स्वस्थ होना असंभव सा हो गया था क्योंकि डॉक्टर समझ ही नहीं रहे कि रोग कौन सा है, सभी इस बात से दुखी व परेशान रहने लगे। यह तो मैं ही जानता था कि मेरे अंदर कितना द्वंद चल रहा है कितनी घुटन हो रही है ना जी पा रहा हूं और ना मर सकता हूं क्योंकि दोनों ही मेरे हाथों में नहीं था।
      लेकिन इस आंतरिक पीड़ा को और ज्यादा न सह पाने के कारण एक दिन अचानक अपने एक मित्र को सारी बात कह डाली, और अगले दिन ही उसने मुझे अपने घर आने के लिए कहा। मैं स्नान आदि से निवृत हो सुबह-सुबह ही उसके घर पहुंच गया वहां पहुंचकर लगा जैसे वह मेरे ही इंतजार में बैठा हो, बातचीत के दौरान उसने मुझसे एक सन्यासी का जिक्र किया और कहा कि- "हो सकता है ये तुम्हारी कुछ मदद कर सकें" ऐसा कह कर उसने मुझे उनके पास जाने के लिए पूछा मैं भी उसकी बातों को मानते हुए उसे संयासी जी के पास पहुंचा जो कि एक आश्रम में रहते थे।
   मित्र को देखते ही उन्होंने करुणामई दृष्टि से उसकी ओर देखा और मुस्कुराने लगे, क्योंकि वह सन्यासी मेरे मित्र के गुरु थे,और उनकी सेवा और उनके प्रति उसके समर्पण से ही बेहद ही प्रसन्न थे उनकी मनमोहक मुस्कान ने पहली नजर में ही मुझे प्रभावित कर लिया था।
                मित्र के आग्रह करने पर उन्होंने उस रूपसी के पूर्वजन्म का लेखा-जोखा मुझे स्पष्ट शब्दों में कहा सुनाया, जिसे सुनकर मैं हस्तप्रभ सा रह गया उन्होंने जो कहा वह तो मेरी कल्पना से भी परे था जिसे सुनकर मेरे रोम-रोम में रोमांच भर गया।
    उन्होंने बताया कि वह कोई साधारण गृहस्थ स्त्रियां या मानवी नहीं है अपितु एक अप्सरा है जिसका नाम "दिव्यांगना" है।
जैसा उसका नाम था वैसा ही उसका रूप सौंदर्य भी, यौवन के भार से लदा हुआ, सुंदरता से गड़ा हुआ,अनूठा अनुपम जिसे देखकर देवता भी ठगे से रह जाए...... ऐसा ही था उसका आकर्षण और निर्मल रूप,भोली,निर्दोष मुखाकृति जो उसे सभी अप्सराओं से श्रेष्ठ घोषित करती थी।
      अपनी इसी अद्वितीयता के कारण ही वह अन्य अप्सराओं में श्रेष्ठ और दिब्य भी मानी जाती थी, क्योंकि अपने नाम से ही अनुरूप दिव्य अंगों से विभूषित होने के कारण है उसका नाम "दिव्यांगना" पड़ा।
एक बार वैश्रब्य ऋषि अपने पिता की आज्ञा मान तपस्या में रत थे, उनका दृढ़ व्यक्तित्व अपने आप में अनोखा और अद्वितीय था जिसे देखकर उस दिव्यांगना अप्सरा का हृदय  काबू में ना रह सका, अपने रूप जाल में उन्हें फंसाने के लिए उसने नृत्य के द्वारा और अपने अंग-प्रत्यंगों के आकर्षण से उन्हें रिझाने का भरसक प्रयास किया और उनकी तपस्या को भंग कर दिया जिसे देख वैश्रब्य के पिता ने क्रोध से तिल मिलाते हुए श्राप दिया दिव्यांगना तुमने वैश्रब्य की तपस्या को भंग कर एक घोर अपराध किया है जिसका दंड तुम्हें मिलना ही चाहिए मैं तुम्हें यह श्राप देता हूं कि तुम्हारा जन्म पृथ्वी पर एक मानवी के रुप में होगा और तुम चाह कर के भी अब इंद्रलोक में विचरण नहीं कर सकती और ना ही इस प्रकार किसी ऋषि का तपस्या को भंग करने की दुस्साहस कर सकोगी।
   फिर गुरुदेव ने रुककर ........कुछ सोचते हुए मेरी ओर देखकर कहा कि यह वही अप्सरा है किंतु तुम चाह कर भी उससे विवाह नहीं कर सकते क्योंकि वह एक अप्सरा है,कोई साधारण स्त्री नहीं, वह बात अलग है कि श्राप के कारण वह अपनी वास्तविकता अपनी तेजस्विता को विस्मृत कर बैठी है ।तुम्हारे लिए यही अच्छा होगा कि तुम यह विचार अपने मन से निकाल दो, यह कह कर वे विश्राम गृह में चले गए और मैं घर लौट आया,किंतु उस विचार को अपने मन से ना निकाल सका।
     अब तो मेरे मन में उसे पाने की लालसा और भी ज्यादा तेज हो गई और यह विचार आया कि जीवन में कोई कार्य असंभव नहीं होगा उनके लिए जिनसे मुझे उसके वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हुआ।
     
      क्रमशः..........

मैं और मेरी प्रियतमा सौंदर्या

उसे एक बार मेरी आंखें ने देखा और ठगी सी रह गई, जैसे मेरे दिल ने धड़कना बंद कर दिया हो और शरीर निढाल सा हो गया हो....... ऐसा ही था उस 19 वर्षीय बाला का सौंदर्यमयी गौर वर्णीय शरीर, जिसे एक क्षण देखते ही मैं स्तंभित सा खड़ा रह गया और उसे अपना बना लेने का स्वप्न देखने की धृष्टता कर बैठी ये बेमौत मारी हुई दो आंखें.... और दिल ,जो रह रह कर उसी का स्मरण मानस पटल पर ज्यों का त्यों अंकित कर रहा था।
ऐसा लग रहा था,जैसे इसी सौंदर्य की प्रतीक्षा में मैं कई वर्षों से भटक रहा था जो आज अचानक ही स्वप्न के रूप में मेरे सामने दृष्टिगोचर हो गया हो लेकिन वह सपना नहीं शायद हकीकत ही था यह मुझे तब महसूस हुआ जब वह मेरे ही बाई तरफ की बगल वाली सीट पर बैठी,और एक मनमोहक मुस्कान के साथ उसने मुझे देखा और ऐसे देखा कि फिर मैं होश में ना रह सका, ना जाने क्यों उसे बार-बार देखने की इच्छा हो रही थी, मर्यादाकुस कुछ अटपटा सा भी लग रहा था , जाने क्यों फिर भी उसे एकटक देखता रहा......... और वह भी मुझे एक मादक मुस्कुराहट के साथ प्रेममई दृष्टिि से देखने के लिए उत्सुक हो रही थी लेकिन संकोचवश अपनी पलकों को कभी हौले से चुपके से मुझे देख लेती।
    यह बात मेरी समझ में नहीं आई कि वह मेरी और इस दृष्टि से क्यों देख रही थी जैसे वह मुझे कई वर्ष पहले से जानती हो इस भाव को उसकी आंखों में पढ मेरा मन यह जानने के लिए बेचैन हो उठा किंतु फिर भी मैं मौन ही रहा और 15 मिनट थक उसके साथ सफर कर कुछ ना कहते हुए मैं और वे दोनों ही अपने अपने रास्ते अलग अलग दिशा में चल दिए।
            हर क्षण मेरा मन उसे देख लेने के लिए बेचैन होने लगा ऐसा एहसास होता कि जैसे वह मेरी प्रेमिका है, जो शायद मुझसे बिछड़ गई है, उस दिन मैं चौन से एक पल भी सो ना सका और इन्हीं विचारों की उत्तल पुथल ने उससे मिलने की उत्सुकता पैदा कर दी।
      मेरे जीवन में ऐसे मोड़ कई बार है जब उसे से साक्षात्कार हुआ और वह भी उन क्षणों में जब मैं तनावग्रस्त होता था या फिर कोई मुसीबत मेरे ऊपर आने वाली होती थी ऐसे क्षणों में ही मैं उसे अपने पास पाता और हर बार वह मुझे उस समस्या से मुक्त कर अदृश्य हो जाती, मेरा मन फिर विचलित हो उठता और एक ही प्रश्न मेरे मानस को झकझोरने लगता कि आखिर यह है कौन जो मुसीबत परेशानियों और समस्याओं के बवंडर से मुझे निकाल कर बार-बार लुप्त हो जाती है?
       हर बार मैं उसे पूछने के लिए आगे बढ़ता किंतु हर बार मेरे कदम रुक जाते और जब तक मैं फिर साहस जुटा पाता तब तक वह गायब हो जाती है ऐसा लगातार सात-आठ महीने तक छुपा छुपी का खेल चलता रहा किंतु उसने कभी मेरा अहित नहीं चाहा उसने हर बार मेरी सहायता ही की और कठिन से कठिन परिस्थितियों से भी मुझे निकाल लिया, उसने मेरी हर दृष्टि से पूर्ण सहायता की,जब मुझे धन की आवश्यकता होती तो मेरे पास अकस्मात ही धन आ जाता मैं कभी निराश होता या किसी अन्य तनाव से ग्रस्त होता तो वह उस क्षण अचानक मेरे सामने उपस्थित हो जाती मैं अपना सारा दुख तनाव उसे देखते ही भूल बैठता और उसके निदान का उपाय भी मुझे मिल जाता उसने बड़ी बड़ी दुर्घटना उसे मेरी जान भी बचाई इससे बच पाना कठिन ही नहीं असंभव भी था।
           दिखने में तो वह एक साधारण से पूर्ण यौवन के भार से लदी हुई एक वाला थी, जिसका सौंदर्य किसी को भी बेसुध कर देने के लिए पर्याप्त था, उसकी झीलदार और धारदार आंखें ,छोटी सी नाक, गुलाब की पंखुड़ियों की तरह थिरकते हुए होंठ ,भादो की श्यामल काली घटा की तरह लहराते हुए बाल और हिरणी की तरह भोली भाली चितवन जो किसी भी पुरुष को अपने नैनों से बांध लेने में समर्थ थी जो किसी भी यौवनवान व्यक्ति को अपनी तरफ खींच लेने में सक्षम थी, क्योंकि उसके शरीर से प्रवाहित होती थी मादक नशीली हवा उसके शरीर से निकलती थी गुलाब के पुष्पों सी सुवास।     
                      उसके सौंदर्य का कोई भी गुण उसे किसी साधारण स्त्री की श्रेणी में खड़ा नहीं करता था और उसके चेहरे का वह दिव्य प्रकाश जो हर क्षण बना रहता था अद्भुत और आश्चर्य चकित कर देने वाला था मानो सूर्य का प्रकाश चारों तरफ अपनी रोशनी बिखेर कर वातावरण को प्रकाशमान कर रहा हो और फिर हर बार उसका मिलना और हंसकर चले जाना मेरे मन में प्रेम का अंकुरण प्रस्फुटित कर रहे थे।
               हर क्षण मौ यही सोचता रहता कि वे झण माधऔर मधुर्य से ओत-प्रोत हो जाते हैं जब वह मेरे साथ होती है वह झण प्यार की एक मीठी सी फुहार से सारे तन मन को आप्लावित करें स्मृति इतिहास के अमिट असर बन जाते..... ऐसे सुंदर क्षण ही जीवन की सार्थकता है और ऐसे ही क्षण पूरे जीवन भर बने रह सके इसीलिए मैं अपने पूज्य गुरुदेव के चरणो में उपस्थित हुआ और उनसे अपने मन की पूरी व्यथा कह डाली।
       यह सब कहते कहते मेरी आंखों से अश्रु कण छलकने लगे, जिसने तुझे गुरुदेव के चरणों को भिगो दिया क्योंकि मैं जब एक पल भी उसके बगैर जी नहीं पा रहा था और यह गुरुदेव भली भली भांति जान चुके थे गुरुदेव ने मुस्कुराते हुए मेरी ओर देखा और मेरे सामने एक आश्चर्य चकित कर देने वाला रहस्य को उद्घाटित कर मुझे चौंका दिया जो "मेरे पूर्व जन्म" से संबंधित था।

                           क्रमशः .............

अप्सरा से क्या-क्या मांगे

नित्य रात्रि को या जब भी बुलाओगे तब आवे
 नृत्य गान एवं वर्ताओ से साधक का मनोरंजन करें
काम कला से सुख प्रदान करें
साधक को पूर्णिया यौवन प्रदान करें और वह रमण में सिद्ध हो कभी भी रोग या वृद्धा ना आवे
सुख सौभाग्य प्रदान करें
जब भी जितना भी धन मांगे वह ला कर दे
वस्त्र आभूषण स्वर्ण मुद्रा प्रदान करें
 नित्य अपूर्व सौंदर्य एवं यौवन से पूर्णता प्रदान करें
 मधुर हास्य के साथ आनंद प्रदान करें
सभी प्रकार की संसारिक चिंताओं को दूर करें

अप्सरा है क्या?

अप्सरा केवल भोग्या के रूप में ही होती है, यह आवश्यक नहीं है, मधुर वार्तालाप सही मार्गदर्शन भविष्य का पथ प्रदर्शन निरंतर धन प्रदान करने की क्रिया भी अप्सरा के माध्यम से ही संभव है इसलिए यह अप्सरा साधना साधकों के लिए, युवकों के लिए और वृद्धों के लिए भी समान रूप से उपयोगी होती है

भारतीय शास्त्रों में सौंदर्य को जीवन का उल्लास और उत्साह माना है, यदि जीवन में सौंदर्य नहीं है, तो वह जीवन नीरस और उदास हो जाता है,हम में से अधिकांश व्यक्ति ऐसा ही जीवन जी रहे हैं,हमारे होठों पर मुस्कुराहट खत्म हो गई है ,चेहरे की मांसपेशियों शख्स और निर्जीव सी हो गई है, इसके फलस्वरुप हम प्रयत्न करके भी खिली खिला नहीं सकते उन्मुक्त रूप से हंस नहीं सकते,मुस्कुरा नहीं सकते एक प्रकार से हमारा जीवन बंधा हुआ सा बन गया है, और एक जगह बंधे हुए पानी में सड़न पैदा हो जाती है इसी प्रकार रुका हुआ जीवन निराश और बेजान हो जाता है।
               इसका कारण हम सौंदर्य की परिभाषा भूल गए हैं सौंदर्य साधन हमारे जीवन में रही ही नहीं है हम धन के पीछे भागते हुए एक प्रकार से धन लोभी बन गए हैं जिसकी वजह से जीवन को अन्य वृतियां लुप्त से हो गई है।
   इसके विपरीत यदि हम अपने शास्त्रों को टटोल कर देखें तो देवताओं ने और हमारे पूर्वज ऋषियो ने प्रमुखता के साथ सौंदर्य साधनाएं संपन्न की है, सौंदर्य को जीवन के प्रमुख स्थान दिया है,देवताओं की सभा-इंद्र की सभा में नित्य अप्सराएं नृत्य करती थी। वशिष्ठ आश्रम में अस्थाई रूप से अप्सराओं का निवास था। विश्वामित्र ने अप्सरा साधना के माध्यम से जीवन को पूर्णता प्रदान की थी। यही नहीं अपितु सन्यासी शंकराचार्य ने भी सौंदर्यरिमका शशिदेव्य अप्सरा साधना संपन्न करने के बाद अपने शिष्यों को संबोधित करते हुए कहा था कि इस साधना के माध्यम से साधक को यह विश्वास हो जाता है कि उसका अपने मन पर और अपनी इंद्रियों पर पूर्णता नियंत्रण है, इसके माध्यम से जीवन की भी प्रमुख प्रवृत्तियां जो जीवन में आनंद और हास्य का निर्माण करती है, वह वृतीया उजागर होती है और मनुष्य दीर्घायु प्राप्त करने में सफल हो पाता है। इस साधना के माध्यम से व्यक्ति के जीवन में अर्थ सुख आनंद और तृप्ति की किसी भी प्रकार से कोई न्यूनता नहीं रहती।
             जीवन में नारी शरीर के माध्यम से ही सौंदर्य की परिभाषा अंकित किया है। यह तो शास्त्रों में 108 अप्सराओं का विवरण वर्णन मिलता है और इन सभी की साधनाओं के बारे में विस्तार से वर्णन है। अप्सरा सौंदर्य का सकार जीता जागता प्रमाण है। यदि यह प्रश्न पूछा जाए कि सुंदर क्या है तो उसे हम किसी अप्सरा के माध्यम से ही स्पष्ट अंकन कर सकते हैं। अप्सरा का तात्पर्य एक ऐसी देवत्वपूर्ण सौंदर्य युक्त 16 वर्षीय नारी प्रतिमा है, जो मंत्र के माध्यम से पूर्णताः अधीन होकर साधक के दुख में भी सुख की बिजली चमकाने में समर्थ होती है, उसके तनाव के क्षणों में आनंद प्रदान करने की सामर्थ्य रखती है, वह नित्य सशरीर साधक के साथ दृश्य और अदृश्य रूप में बनी रहती है और प्रियतमा के रूप में उसकी प्रत्येक प्रकार की इच्छा पूर्ण करती रहती है।


गुरुदेव....कुछ अनछुए प्रसंग



समुद्र से भी गहरा और हिमालय से भी विराट व्यक्तित्व है "पूज्य गुरुदेव डॉo नारायण दत्त श्रीमाली जी" का।आज इस व्यक्तित्व को गृहस्थ में देखकर यह विश्वास ही नहीं होता, कि उनके अन्दर इतनी विशाल ज्ञान का भंडार छिपा होगा। वे अपना एक-एक क्षण पूरी सार्थकता के साथ जी रहे हैं, उनके साथ रहने पर ही मुझे इस बात का एहसास हुआ, कि उनके पास रहना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है, और उनकी सेवा में जो आनंद आता है वह अनिवर्चनीय है।
                                  वे भारतीय ऋषियों की उद्धत परंपरा की एक शाश्वत अचिंत्य कड़ी है, जिनकी आलोक में वर्तमान एवं भावी पीढ़ी अपना पथ देख सकेगी। इस अगाध विस्तृत समुद्र को थोड़े से शब्दों में बांधना कैसे संभव है, और ना ही मुझ में इतनी पात्रता ही है, कि उनके विराट व्यक्तित्व की छाया को भी स्पर्श कर सकूं,किन्तु जो कुछ मैंने देखा ,उनकी विराटता को, अद्वितीय जीवन दर्शन को और विशिष्ट और दुर्लभ साधना क्रम को, उसे मैं प्रयास पूर्वक साधकों और शिष्यों के सामने स्पष्ट कर देना चाहता हूं, जिससे वह भी अपने जीवन में संघर्ष और बाधाओं की प्रवाह किए बगैर मुस्कुराहट के साथ हर परिस्थिति का सामना करते हुए, अपने जीवन की प्रत्येक क्षण को सार्थकता के साथ जी सके और गृहस्थ में रहकर भी अपने साधनात्मक जीवन को व्यवस्थित एवं संयोजित करते हुए अपने गंतव्य तक पहुंच सके।
                         पूज्य गुरुदेव का जीवन तो हर पल संघर्षों ,बाधाओं ,आलोचनाओ, दुखों एवं समस्याओं की तीव्र ज्वाला में जलकर कुंदन हुआ है। पूज्य गुरुदेव तपोबल के  प्रेरणा पुंज है। वर्तमान गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी विदेह हैं।
                    अल्प आयु में ही वेदों,उपनिषदों आदि का भली प्रकार से अध्ययन कर चुके थे, इनका रुझान प्रारंभ से ही अध्यात्म की ओर प्रवृत्त रहा है मन में कुछ कर लेने की चाहा,अभिलाषा उनके मन में बचपन से घर कर गई। वैवाहिक सूत्र में बंधने पर भी वह बंधन उनके पैरों को जकड़ न सका और एक दिन अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए अध्ययन पथ पर बिना किसी की परवाह किए सारे बंधनों को तोड़कर निकल पड़े और इनके कठोर परिश्रम और दृढ़ निश्चय ने इन्हें सामान्य से एक असामान्य व्यक्तित्व वाला बना।दिया बहुत ही गंभीर चिंतन व गंभीर रहस्य छिपा है इस असाधारण व्यक्तित्व के पीछे।
                     इतने कम पृष्ठों में ऐसे अद्वितीय युगपुरुष के चरित्र का मूल्यांकन करना किसी भी दृष्टि से संभव नहीं है, मैंने जो कुछ उनके साथ रहकर देखा है, वह मेरे लिए अद्भुत, अनिवर्चनीय घटनाएं कही जा सकती है, उन घटनाओं के कुछ अंशो को मैंने इन पन्नों पर उतारने का प्रयास किया है।
                वे साधना- तपस्या के प्रति पूर्णता:  समर्पित व्यक्तित्व हैं, तो जीवन के प्रति उन्मुक्त सरल और  सह्रदय भी, वेद,कर्मकांड के प्रति इनका ज्ञान अगाध और विस्तृत है,तो मंत्र तंत्र के बारे में भी पूर्णता: जानकारी भी। ये पहले ऐसे व्यक्तित्व हैं जीनेमें संपूर्ण साधनाएं समाहित है, ऊंचे से ऊंचा विद्वान भी उनकी चरण- राज प्राप्त कर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करता है
                    उनसे बात करते हुए मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं प्रचंड गर्मी से निकालकर किसी वृक्ष की शीतल छाया में आ गया हूं,उनकी बातों से मन को शांति का अनुभव होता है, जैसे पुरवइया सारे शरीर को पुलकित कर रही हो, वे अपने-आप में पूर्ण व्यक्तित्व हैं जिन्होंने घनघोर अंधकार में सूर्य बनकर पूरे विश्व को आलोकित किया है। ऋषि मुनियों, वशिष्ठ,विश्वामित्र शंकराचार्य, शिष्यानंद,अवधूतानंद आदि बड़े-बड़े व्यक्तियों ने जिस चेतन को समाज में जागृत करने का प्रयास किया वह युग अपने आप में दिव्य युग था नाना पद्धतिया एवं विविध साधनाएं ऊंचाई की ओर अग्रसर थे थी परंतु आगे चलकर यह क्रम टूट गया ,ऐसे समय में जब भारतीय उस ज्ञान-विज्ञान से ठिठक गए और आध्यात्मिक ज्ञान के साहित्य को विदेशियों ने जलाकर खाक कर डाला तभी पूज्य गुरुदेव का आगमन उस खोई हुई परंपरा को पुनः जीवित कर देने के लिए हुआ................... क्रमशः

और एक बार फिर इस धरती पर साधना का मंत्रों का गोश्त चारों ओर गुंजरीत होने लगा है।
                  इस खोई हुई निधि को पुनः प्राप्त करने के लिए इन्हें जिन-जिन परिस्थितियों का ,अड़चनों का सामना करना पड़ा और आज भी करना पड़ रहा है उस स्थिति का शायद है किसी ने अनुभव किया होगा, पग-पग पर लांछन,तिरस्कार ,अपमान और व्यंग बालों के कड़वे घूंट पीने पड़े समाज के षड्यंत्रों का गरल अपने गले में उतारना पड़ा इतना होने पर भी वे अडिग खड़े हैं
           उन्हें हिमालय भी नहीं झुका सका और वे आध्यात्मिक पथ पर अपना एक-एक पग आगे भरते हुए हिमालय की उन गुफाओं में खून जमा देने वाली ठंड और बरसात की परवाह किए बगैर आगे बढ़ते जा रहे थे उन्हें ना तो भूख-प्यास की चिंता रहती ना ही पढ़ कर लहूलुहान होने का दुःख।
      वह दिन मुझे भलीभांति याद है जब वे चार-पांच दिन से भूखे थे जोरों की भूख लग रही थी अन्न का एक दाना भी नहीं खाया था छठे दिन जब वह आसानी हो गई तो पास के गांव से भिक्षा मांगने गए और भिक्षा में आटा प्राप्त कर गंगा के तट पर एक मोटी सी रोटी बनाकर अंगारों पर सेकने लगे....... पर जब भूख से प्राण निकले जा रहे थे इसलिए अधसेकी रोटी को खाने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाया...... उन्होंने अपने मन को धिक्कारा...... अंतर्मन ने कहा यह तो इंद्रियों की गुलामी है...... मन फिर भी नहीं माना..... उन्हें क्रोध आ गया और दूसरे क्षण उन्होंने उस रोटी को गंगा में फेंक दिया.... और बिना कुछ खाए पिए अपनी साधना में रत हो गए ......यह है मन पर नियंत्रण
देखने में पूज्य गुरुदेव शिव के समान ही हो औघड रूप में दिखाई देते थे ,शरीर के सभी वस्त्र का उन्होंने त्याग कर दिया था, शरीर पर सिर्फ एक मृगचर्म लपेटे रहते और हिमालय के दुर्गम स्थानों पर चढ़ते समय हाथों में दंड रहता...... एक बार यमुनोत्री के किनारे खड़े थे तब अपने एक शिष्य से बोले मेरा  दंड उसने कहा "आपका दंड "......इतना सुनते ही उन्होंने एक क्षण उसकी ओर देखा और दूसरे ही क्षण यह कहते हुए कि -"यह भी तो आसक्ती है कि यह मेरा है ऐसी आसक्ति किस काम की" और कहते-कहते वह दंड यमुनोत्री की लहरों में फेंक दिया ऐसा ही निर्मुक्त निस्पृह है उनका व्यक्तित्व।
                         कुल्लू मनाली का वह सौंदर्यशाली स्थल वर्षा का वह दिन जब ब्यास नदी अपनी उबाल तरंगों से मानव आसपास के क्षेत्र को निगल लेना चाहती हो ........लोगों का भयवश भागना ........ नदी का विकराल रूप उनकी आंखों में दहशत पैदा किए हुए था ऐसा लग रहा था........ मानो एक-दो दिन में वह नदी प्रलय की स्थिति उत्पन्न कर देगी तभी अचानक एक व्यक्ति लहरों की चपेट में आ गया बचाओ-बचाओ कह कर वह चिल्लाया पर किसी में हिम्मत नहीं थी कि वह नदी में कूदकर अपने हाथों से मृत्यु का वरण करें उसे बचाना तो दूर कूदने वाले का भी बचना संभव था इतने में तेज रफ्तार से दौड़ते हुए गुरुदेव वहां आए और अपनी जान की परवाह किए बगैर नदी में छलांग लगा दी आसपास के लोग सन्न से खड़े इस दृश्य को देखकर चीख पड़े .........मेरी आंखों में खौफनाक भय समाया हुआ था ऐसे तेजस्वी व्यक्ति को मृत्यु को इस तरह से खींच लेगी मैंने इसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी पर तभी अचानक गुरुदेव उस व्यक्ति को कंधों पर लादे नदी की विपरीत धारा में किनारे की ओर आ गए मेरे लिए यह बात अप्रत्याशित थी की लहरों के उस तांडव नृत्य से कोई बच जाए घोर आश्चर्य हुआ यह देख कर।
   फिर उस व्यक्ति को लेट आते हुए कृत्रिम श्वास देकर गुरुदेव ने उसकी जीवन रक्षा की सभी के हृदय गुरुदेव के प्रति कृतज्ञता से भर गए उसे होश में आया देखकर गुरुदेव वहां से उठे और भीगे वस्त्रों में ही आगे बढ़ गये, ना तो किसी को धन्यवाद देने का अवसर दिया और ना ही किसी प्रकार की कोई इच्छा ही रखी।
        उस दिन मैं मनाली के जंगलों में उनके साथ विचरण कर रहा था जंगल भयानक पशुओं से भरा हुआ था और जंगली भौसे वहां अत्यधिक मात्रा में थे तीन-साढ़े 3 वर्ष का भैंसा इतना खूंखार होता है कि शेर को भी अपने सींगों से उछाल देता है।
               यौवन के उन्माद में वह साक्षात् यमराज का रूप में दिखाई देता है।ऐसे ही हम दोनों बातचीत में मगन पगडंडी पर चले जा रहे थे, कि अचानक हमारे सामने 15-20 फीट की दूरी पर हीं एक यडियल भैंस लाल लाल आंखों से हमें घूर रहा था। उसकी विशालता और बलिष्ठता देखकर हाथी भी दुम दबाकर भाग खड़ा होता...... आसपास कोई पेड़ ना होने के कारण जान बचाने का कोई चारा नहीं था, ऐसा लगा मानो मृत्यु हमारे सामने साक्षात खड़ी हो....... अचानक वह भैंसा जोरो से हमारी ओर झपट्टा गुरुदेव ने अचानक ही 1 सेकंड के सौवें के हिस्से में तुरंत निर्णय लिया और मुझे धक्का देकर स्वयं भी उसकी मार्ग से हट गए...... भैंसा अपनी राहों में हमारे पास से होता हुआ निकल गया परंतु 15:20 फीट के बाद वह वापस लौटा तब तक गुरुदेव दृढ़ निश्चय करके उनके सामने खड़े रहे......और मुझे स्मरण है जैसे ही वह गुरुदेव की ओर झपटा उनका एक जोरदार मुक्का उसकी पीठ पर पड़ा..... वह मुक्का क्या था वज्रपात था..... वह जंगली भैंसा उन प्रहार को सहन ना कर सका और वहीं ढेर हो गया.... मैं आश्चर्यचकित हो गुरुदेव की ओर देखने लगा अगर वह ना होते तो मैं मृत्यु को प्राप्त हो गया होता।
      साधना का 21 वा दिन था पूज्य गुरुदेव बिना कुछ खाए-पीए लगातार इस अवधि में गंगा के तीव्र प्रवाह के बीच खड़े होकर "ब्रह्मांड आत्मसात् साधना" संपन्न कर रहे थे..... तट पर सैकड़ों शिष्यों की भीड़ बड़ी ही उत्सुकता से उनके विजय घोष की प्रतीक्षा कर रही थी...... आसपास के साधू सन्यासि भी भय मिश्रित आश्चर्य के साथ इस दृश्य को देख रहे थे..... मंत्र का जप संपन्न हुआ और गुरुदेव ने अपने दोनों हाथों को ऊपर उठाते हुए अपने गुरुदेव को अर्घ्य प्रदान किया....  इशारा पाते ही 5-10 शिष्य तुरंत पानी में उतरे और उस दृढ़ निश्चय योगी को बाहर निकालने का उपक्रम करने लगे.... उफ किस प्रकार से उनके पांव पानी में पड़े रहने के कारण सूज गए थे सारे नशे उभर आई थी जगह-जगह से मछलियों ने मांस उधेड़ लिए थे और एक एक इंच के गड्ढे साफ नजर आ रहे थे..... शिष्यों ने तुरंत ही गर्म तेल लेकर उनकी मालिश कर दी, पर ऐसी स्थिति में भी उन महापुरुष के चेहरे पर शिकन और पीड़ा की एक भी रेखा नहीं आई.... ऐसे योगीराज को शत-शत प्रणाम।
           परम पूज्य गुरुदेव जी हमेशा से कठिन से कठिन साधनाओं का चयन कर विपरीत परिस्थितियों में भी उनको संपन्न करके ही रहते हैं उस समय उनके ऊपर ऐसा जुनून सवार हो जाता है कि ना तो उन्हें अपने देह की चिंता रहती है और ना ही भूख-प्यास की आज पूरा विश्व उनका आभारी है कि उन्होंने लुप्त प्रायः साधनाओं को फिर से पुनर्जीवित किया है।
     मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि "काकभुशुंडि आश्रम" से आगे हम सभी रुके हुए थे 5 दिन से लगातार भयंकर तूफान आ रहा था....?. चुकी उन्हें अपनी साधना संपन्न करनी थी, हमारे बहुत मना करने पर भी वह गुफा के बाहर उस तूफान में ही साधना में लिप्त हो गए, ना तो उन्हें अतिरिक्त वस्त्र साथ लिया और ना ही कोई खाद्य सामग्री स्वीकार की 10 दिन की उस कठोर साधना के चिन्ह उनकी देह पर स्पष्ट दिखाई दे रहे थे शीत के कारण उनका शरीर अकड़ गया था और बिना भोजन किए काफी कमजोरी आ गई थी..?. पर फिर भी हम हैरान हैं जिन दिव्यास्त्रों की साधना में आज तक हमें सफलता नहीं मिली थी, उसे उन्होंने ऐसी विकट स्थिति में भी सफलता से प्राप्त कर लिया।
            तांत्रिक सम्मेलन में महाविद्याओं पर चर्चा चल रही थी..... तारा साधना में आने वाले कठिनाइयों पर समस्त योगी अपने विचार दे रहे थे,सभी के विचारानुसार प्रचलित विधि अत्यधिक दुर्गाम दुःसाध्य थी..... तभी पूज्य गुरुदेव बीच में उठे सभी योगियों को संबोधित करते हुए उन्होंने " तारा साधना"को संपन्न करने की एक नवीन एवं सरल विधि स्पष्ट की और उसे प्रत्यक्ष प्रमाणित भी किया। सभी तांत्रिकों ,योगियों  मे हर्ष की ध्वनि गूंज उठी और सभी ने एक स्वर में स्वीकार किया कि वास्तव में ही योगीराज परमहंस "डॉक्टर नारायण दत्त श्रीमाली जी" इस पृथ्वी की श्रेष्ठतम विभूति हैं और इस क्षेत्र में उन से श्रेष्ठ अन्य कोई भी नहीं...... वास्तव में ही वे प्राचीन ऋषियों की कड़ी की एक अद्भुभूूूत मंत्र दृष्टा एवं मंत्र सृृृ्ष्टा है जो हजारों-हजार वर्ष बाद ही इस पृथ्वी पर आते हैं।
    बूंद-बूंद कर सागर की तरह बना है या व्यक्तित्व जहां पर भी यह गए जिस किसी भी साधु सन्यासी योगी यति को देखा उन सब से इन्होंने बिना हिचक ज्ञान प्राप्त किया इन्होंने कभी उनकी सेवा करने में कमी नहीं छोड़ी और ना ही उन्होंने कभी ज्ञान देने में कृपणता दिखलाई......... अवधूत आनंद पगला बाबा भैरवी मां त्रिजटा अघोरी ना जाने कितने योगियों से इन्होंने विद्या प्राप्त की पर इतना प्रतिभाशाली व्यक्तित्व है इनका, की कुछ ही वर्षों में उन सबको पीछे छोड़ कर वे आगे बढ़ गए....... ज्ञान, तंत्र, साधना के क्षेत्र में उनसे भी ऊंचे उठ गए और बाद में उनका मार्गदर्शन भी किया। कठोर तप व निश्चय के बल पर ही यह ब्रह्मांड के श्रेष्ठतम व्यक्तित्व कहलाते हैं।

नोट-- गुरुदेव से संबंधित यह संस्मरण विभिन्न सूत्रों, सन्यासियों ,योगियो एवं व्यक्तियों से प्राप्त हुए हैं जिन्हें लेखबद्ध कर इन पृष्ठों पर दिखाया गया है                         जय सतगुरु देव महाराज की

-:अप्सरा साधना संक्षिप्त परिचय:-

अप्सराएं के दो वर्ग है, एक वर्ग मे तो वे अप्सराएं आती है जिनकी साधना पुरुष करते हैं और उन्हें प्रसन्न कर अपने अनुकूल बनाकर उनसे धन द्रव्य यश सौभाग्य एवं सुख प्राप्त करते हैं।
                दूसरे प्रकार की ''सुरती प्रिया अप्सराएं''होती है जो स्वयं मृत्यु लोक के प्राणियों से संसर्ग,संपर्क,साहचर्य चाहती है। वह खुद इसके लिए प्रयत्नशील होती है कि कोई साधक थोड़ी सी भी साधना करें और हम उस के संपर्क में उपस्थित हो इससे साधक को सुविधा मिल जाती है और उसको साधना शीघ्र सिद्ध हो जाती है।
अप्सरा सिद्धि करना किसी भी दृष्टि से असामान्य और अनैतिक नहीं है, उच्च कोटि के योगियों,सन्यासियों, ऋषियों, और देवताओं तक ने अप्सराओं की साधना की है यो तो मंत्र महोदधि आदि ग्रंथों में 108 विभिन्न अप्सराओं प्रमाणित साधनाएं दी हुई है और उनमें से कई अप्सराओं की साधनाएं साधकों ने सिद्ध की है और उसका लाभ उठाया है।
  पर हमें ''सुरती प्रिया" स्वर्ग की अप्सरा साधना का प्रमाणिक विवरण प्राप्त नहीं हो पा रहा था ,इस बार संयोग से सोलन शिविर से पहले शिमला के पास एक चैल नाम का स्थान है, जो कि प्रकृति की दृष्टि से अत्यंत रमणीय और प्रसिद्ध स्थान है, जिसे महाराजा पटियाला ने बनवाया था।
     जब हम शहर के प्रकृति सौंदर्य का आनंद ले रहे थे तभी हमारी वहां पर एक गृहस्थ सन्यासी से भेंट गई गृहस्थ सन्यासी शब्द में इसलिए प्रयोग कर रहा हूं कि वह सही अर्थों में तो हिमाचल में रहने वाले गृहस्थ ही हैं जिनकी एक पत्नी और तीन संतान है ,परंतु यदि मूल रूप से देखा जाए तो वह सन्यासी हैं उनका सारा जीवन तांत्रिक साधनाओं में ही व्यतीत हुआ और तंत्र के क्षेत्र में भी अद्वितीय सिद्ध योगी हैं उनका नाम सौंदर्य नंद जी है।
      हमारी जिज्ञासा बड़ी हमने इनका नाम तो पहले ही सुन रखा था और हमें यह ज्ञात था कि अप्सरा साधना में यह सिद्धहस्त आचार्य हैं तथा इन्होंने लगभग सभी की सभी अप्सराओं की साधनाएं संपन्न की हैं, हमारी जिज्ञासा यही थे कि यदि हमें इनके द्वारा सुरती प्रिया अप्सरा साधना की जानकारी और साधना रहस्य ज्ञात हो जाए तो यह काफी महत्वपूर्ण कार्य होगा।
         मैंने उनसे इस संबंध में निवेदन किया तो उन्होंने कहा मैं एक जगह टिक कर बैठता नहीं गृहस्थ अवश्य हो परंतु नहीं के बराबर गृहस्थ हूं।
      फिर चर्चा गुरुदेव के बारे में चली तो उनके साथ व्यतीत किए हुए दिन याद हो आए उन्होंने बताया कि मैं लगभग 1 वर्ष से भी ज्यादा उनके साथ रोहतांग के पास रहा था और उनसे काफी कुछ साधनाएं मुझे प्राप्त हुई थी।
  पर इसके बाद मेरा रुझान अप्सरा साधनाओं की ओर बढ़ गया और मैंने अपने जीवन में यह निश्चय किया कि सभी साधनाओं को रख लूं और सभी साधनाएं संपन्न कर लू, मुझे इसमें पूरी कामयाबी मिली लगभग सभी अप्सराओं को मैंने सिद्ध किया है यद्यपि उन सब की क्रिया उन सब की सिद्धि करने का तरीका अपने आप में अलग है और गोपनीय है यदि मंत्र महारणव आदि ग्रंथों  में प्रकाशित साधनाओं के आधार पर इन्हें सिद्ध किया जाए तो सफलता नहीं मिल पाती।
       मैंने परिश्रम कर कई सन्यासियों से और इस क्षेत्र के श्रेष्ठ योगियों से मिलकर इन साधनाओं को सीखा है सिद्ध किया है इन्हें प्रत्यक्ष किया है और अब मैं इससे संबंधित ग्रंथ लिख रहा हूं यदि साधकों का सौभाग्य होगा तो यह ग्रंथ प्रकाशित ही होगा।
क्रमशः