प्रिय वल्लभा किन्नरी


किन्नर यानी कि मनुष्य और देवताओं के मध्य की कड़ी,वरदायक शक्ति संयुक्त अद्भुत सम्मोहन कारी प्रभाव से सिद्ध साधक को पूर्णता देने में सक्षम।
          अप्सराओं से अधिक मादक, प्रवीण और धन्य धान्य से परिपूर्ण कर देने की कला जानने वाली विशिष्ट देवी..........
      जिस तरह से इस संसार में आमोद-प्रमोद मनोरंजन के कई उपाय हैं ठीक उसी तरह से साधना जगत भी अपने में कोई आयाम समेटे हैं, जो सही अर्थ में साधक होते हैं उनके जीवन में विविध पक्ष होते हैं वास्तविक साधक जीवन का केवल एक ही पक्ष, साधना करना ही नहीं रह जाता वह तो जीवन के सभी पक्षों को जीता है, प्रत्येक आयामो को समझता है -जैसे कोई बलशाली और सुदृढ़ युवक किसी ऊंची पर्वत की चोटी पर कभी इस मार्ग से चढ़ाने का हौसला और दमखम रखें, तो कभी उस मार्ग से। उस में हठ समाई हो कि वह प्रत्येक मार्ग का सौंदर्य निहारेगा ही, उसने कूट-कूटकर आग्रह भरा हो कि वह जीवन का संपूर्ण सौंदर्य जी ही लेगा। यह सच है की तलहटी के सभी रास्ते पर्वत की चोटी तक जा रहे हैं लेकिन हम क्यों ना हर मार्ग का आनंद लें, फिर भले ही उबड़ खाबड़ मार्ग मिले या घने जंगलों में से होकर गुजरा या सुरम्य फूलों भरा मार्ग मिला। हिंसक पशुओं वाला मार्ग मिला तभी तो जीवन का रोमांच ही होगा।
        यह होती है साधक की भाव भूमि और ऐसे ही भाव से भरे साधक जीवन में उतार सकते हैं कोई भी साधना। सौंदर्य साधनाएं तो ऐसे ही साधकों के आसपास खेलती सी रहती है। अप्सरा साधना,यक्षिणी साधना,किन्नरी साधना ऐसे ही साधकों के लिए गढी गई है, क्योंकि ऐसे साधक इस भावभूमि से भली भांति परिचित होते हैं, जिस पर रहकर ऐसी साधनाओं को सिद्ध किया जा सकता है,और किसी अप्सरा या किन्नरी के प्रकट होने पर कैसा व्यवहार किया जाता है, कैसे उसे जीवन में उतार लिया जाता है, और उसका उपयोग किया जाता है।
            किन्नरी साधना को लेकर मैं भी प्रारंभ में सामान्य साधक की तरह शंकालु और कुछ हद तक भयग्रस्त भी था,क्योंकि प्रचलित धारणाओं से किन्नरी को लेकर मन में छवि ही ऐसी बन गई थी, फिर भी मैं कौतूहलवश साधना में बैठ गया मेरा कोतूहल था कि मैं अप्सरा वर्ग के अनुभव को तो परख चुका हूं अब आजमा कर देखू की किन्नरी वर्ग में क्या विशेषताएं हैं,और अप्सरा की अपेक्षा किन्नरी में क्या अलग गुण होते हैं, क्यों वह अवसरों वर्ग से भी अधिक श्रेष्ठ कहीं गई है
               प्रारंभ मे मुझे असफलताएं मिली और कोई भी अनुभूति नहीं मिली ।मैंने पूज्य गुरुदेव से फोन करके इस विषय में कारण जानना चाहा, जिससे प्रत्युत्तर में उन्होंने खिन्न  न होने की आवश्यकता पर विशेष बल दिया तथा भविष्य में सफलता प्राप्ति का आशीर्वाद भी प्रदान किया। उन्होंने यह भी कहा कि इस प्रकार की साधना में प्रारंभ में ही तुम जिस प्रकार की सफलताओं की आशा रखते हो वह कठिन होती है, किंतु असंभव नहीं। मेरा मन कुछ टूट सा गया था। उसी बीच मेरा स्थानांतरण भी हो गया तथा मैं स्थानांतरित होकर नागपुर चला गया मैं अपनी नौकरी और दैनिक जीवन चार्या में तथा नये स्थान से तालमेल बैठाने में फिर ऐसा व्यस्त हो गया कि किन्नरी साधना को भूल केवल दैनिक पूजा तक ही सीमित रह गया।
      मेरा नागपुर पहुंचने के कुछ दिनों बाद की घटना है कि मेरे कार्यालय में एक विशेष पद जो योग्य पात्र न मिलने के कारण कई माह से खाली पड़ा था, उस पर नियुक्त होकर एक प्रयः 27-28 वर्ष की आयु की युवति आई।उसकी आयु एवं पद के लिए वांछित योग्यता को देखते हुए हम सभी आश्चर्यचकित थे, कि कैसे उसने इतनी कम उम्र मे हीं ऐसी योग्यता प्राप्त कर ली है।सुदूर दक्षिण प्रांत से आए उस युवती का नाम अनुपमा था ,जो अपने नाम के अनुरूप ही वास्तव में अनुपम ही थी। वह अकेली ही कार्य करने के लिए वहां आई थी उससे उसके परिवार आदि के विषय में किसी ने कुछ विशेष नहीं पूछा।
     अनुपमा दक्षिण भारतीय होने के बाद भी गोरेपन की ओर बढ़ता हुआ गेहुआ रंग लिए थी, जो कि उसके स्वस्थ व ताजगी से भरे बदन से आती झिलमिलाहट में घुल मिलकर सुनहरी सी आभा देता था। हल्का भरा बदन,सामान्य से कुछ अधिक ऊंचाई और खुली हुई शरीर संरचना में उसके बदन का भरवा खिलकर निखर उठा था। प्रकृति रूप से उसके लंबे व घने बाल थे, जो कि किसी भी दक्षिण भारतीय युवती को प्रकृति प्रदत्त सौंदर्य होता है, उस पर भी रोज करीने से लगी सफेद फूलों की वेणी जिसकी ताज़गी से उसका चेहरा भी वैसा ही स्वच्छ और धुला धुला सा लगता था।जब उनको वह कभी जुड़े की शक्ल में बांध देती थी और तब कहना कठिन होता था कि वह किस रूप में अधिक मोहक लगती है। गालों पर कुदरती लाली, बड़ी-बड़ी और गहरी काली आंखें जिसमें अभिमान भरा था।आकर्षण ठोड़ी और गहराई भरे रसीले होठ, जिन्हें वह कभी सजा देती थी अपने मन की तरह कोमल, हलके गुलाबी रंग, जामुनी रंग से।छोटे कानों की गोलिईयों को उसने कुछ और सवार दिए था मोतियों के बूंदों से जो, उसके चेहरे पर छाई मोतियों कि सी आभा से ही घुल मिल जाते थे।वह आभा जो किसी व्यक्ति के चेहरे पर अभिमान की आभा कही जा सकती है।
         गले में पतला सा मंगलसूत्र जिन्हें वह रह रह कर अपनी पत्नी अंगुलियों में घुमाती रहती थी।स्वस्थ भरी भरी कलाइयों में एक एक सोने की पतली चूड़ी, जो उसकी गोरी बाहों में सुडलता पर रह रह कर यू कौध सी फेकती मानो कहीं से सुनहरी धूप की कोई किरण आकर किसी अंधेरे कमरे में कौध जाए। बात करते समय उसके हाथ कभी-कभी बालों को हल्के से सवारते थे तो,कभी गले में पड़ी चेन को घुमाने से उसकी गोरी उठी बाहें यूं लगती थी कि अपनी थिरकन से वह बाहों में निमंत्रण का कोई संगीत छेड़ दिया हो।पतली पतली कोमल अंगुलियों में सादगी से पड़ी थी केवल एक मोती की अंगूठी। कानों की ही तरह बाहों के दूधियापन में खो गया एक और कीमती रत्न!जिसकी गुलाबी और उजली आभा उसकी अंगुलियों में घुल मिल गई थी।
                 मै उसे देखता तो सोचता कि यह तो खुद जो मोती जैसी है भला क्यों मोती धारण करती है, यह तो उसके बदन पर यूं ही बिखरे बिखरे हैं, लेकिन मोती ही उसका सही रत्न था। वह भी तो मोती की तरह है आभा और सुडौलता अपने अंगों उपांगों में संजोए थी। दो मोती ही तो उसके वक्ष स्थल पर ढले हुए थे -कुंचमंडल बनकर।उसकी स्वाभिमानी चाल से वह दोनों विशाल मोति यों थिरक उठते थे, जो किसी रूपसी के गले में पड़ी माला के मनके।उसकी मांंसल कमर जो पतली ना होने पर भी मादकता से भरी हुई जिसमें पड़े बल नाभि के पास लहरा कर आते हुए योंं गोते लगाते जैसे किसी गहरी नदी मे भवर पड़ी हो और वहां सारी लहरें जाकर खो जा रही हो। सारे कटि प्रदेश की मांंसलता,कटाक्ष,दूधियापन सब कुछ उस नाभि की भंवर में,उसकी गहरी भंवर में खोता सा दिखता था और उसका नितंब प्रदेश तो अपनी गढ़न को लिए छुपे छुपे ढंग से सभी पुरुषों के माध्यम चर्चा का केंद्र था।कितने भी ढ़ीली साड़ी वह क्यों न बांधी लेकिन आंतरिक कसाव छिपाए नहीं छिपती थी। दो जंघाओं की गठन झलक जाती थी जब कोई तेज हवा की लहर आकर उसके बदन को छू कर निकलते और सारे वस्त्र को शरीर से चिपका दे, ज्यो किसी मासूम बच्चे ने चुगली सी कर दी हो.......

इंद्राप्सरा साधना


आज के युग में आप मानो या ना मानो पर हम आप को मानने के लिए बाध्य कर देंगे कि,आप इस प्रयोग को करें,मंत्र जपे,कानों में घुंघरूओ की खनखनाहट सुने, आंखों से नृत्य देखे और परिवार को अपनी समृद्धि धन और श्रेष्ठ​ता दिखाकर आश्चर्यचकित करें!  
                          वास्तव,में आज के युग में मानना, की अप्सरा का नृत्य देखा है या देखा जा सकता है, कानो से घुंघरू की झंकार आहट सुनी है....... असंभव ही लगता है। मैं भी यही समझता था, कि यह कैसे संभव हो सकता है कि मंत्र जपे और आंखों से नृत्य देखे या कानों से घुंघरू की खनखनाहट सुनें........ पर जब मैंने साक्षात्कार किया तो मुझे भी बाध्य होना पड़ा, यह मानने के लिए कि असंभव जैसा कुछ भी नहीं है। मैं एक साधारण परिवार से संबंधित था  चूकि मेरी दोस्ती गांव के जमीदार के पुत्र से दिया थी,अतः मैं उसके साथ ही पूरे दिन मौज मस्ती करता रहता था, उसे घुड़सवारी का शौक था, उसके साथ मैं भी घुड़सवारी सीख लिया था। हम दोनों भिन्न-भिन्न परिवार से होते हुए भी एक ही परिवार से संबंधित लगते थे। जमीदार का स्नेह भी मुझ पर अत्यधिक था।
   परंतु पिताजी को किन्हीं कारणों से उसके गांव से निकलकर एक बड़े शहर में जाना पड़ा। वहां जाकर पिता जी ने व्यापार शुरू किया और वहां पर उनका व्यापार अच्छा चल पड़ा। वहां पर मैं भी आगे पढ़ने के लिए स्कूल जाने लगा। धीरे-धीरे मैं गांव के वातावरण को भूल पढ़ाई में व्यस्त होता चला गया।
        तकरीबन 2 वर्ष बाद मुझे अपने दोस्त का पत्र मिला पत्र इतना आत्मीयतापूर्ण था, कि चाह कर भी  वहां जाना स्थगित न कर पाया और पुनः अपने दोस्त से मिले 2 वर्ष बाद उसी गांव में पहुंचा।वहां पहुंचा तो देखा कि अब वह एक अजीब सी भेष भूषा में रहने लगा है, मैं तो उसे देखकर संसय में पड़ गया कि इसे क्या हो गया है। गांव भी इन 2 वर्षों में काफी बदला हुआ लग रहा था।जमीदार साहब भी बाहर से प्रसन्न तो दिख रहे थे, पर साथ ही साथ कुछ परेशान भी लग रहे थे। उन्हें परेशान देखकर मुझसे रहा नहीं गया और मैं पूछ ही बैठा क्या बात है जमीदार साहब आप परेशान से लग रहे हैं, अगर मैं आपकी परेशानी हल कर सकूं तो मुझे प्रसन्नता होगी।
       चुकी मेरे और उनके पुत्र के मध्य के घनिष्ठ संबंध को वे जानते थे, और मुझे भी भी अपने पुत्र जैसा स्नेह देते थे, इसी आत्मीय संबंधों के कारण वह मुझसे खुलकर अपने मन की बात कहने लगे जिसके कारण भी चिंतित थे। उन्होंने कहा- "तुम्हारे जाने के बाद 2 वर्षों में अनेक घटनाएं घटी है उन घटनाओं के कड़ियों को जोड़ता है तो परेशान हो जाता हूं........"
          उन्होंने उन 2 वर्षों की घटनाओं को संक्षेप में बताना शुरू किया तुम्हारे जाने के बाद छोटे जमीदार साहब अकेले हो गए थे वे दिन दिन भर घर से गायब रहते, पूछने पर कुछ नहीं बताते....... महीने भर तक तो यही क्रम चला,फिर वे रात को भी प्रायः घर नहीं आते। वह कहां जाते हैं यह देखने के लिए कई बार लोगों को उनके पीछे भेजा, तो यही पता चला कि गांव के बाहर जो खंडहर है, वही जाते हैं.......... यह क्रम करीब 6 महीने चला।
           6 महीने बाद तो वहीं जाकर बस गए, अजीब सा पीर फकीर जैसा वे वेशभूषा में।कभी घर बुलाता तो वह साफ मना कर देते थे। मैं स्वयं भी उन्हें लेने कई बार गया परंतु उन्होंने मना कर दिया।
      उनके जाने से मैं बहुत परेशान रहने लगा, तुम्हें तो पता है कि वह मेरे एकमात्र पुत्र हैं, उनकी जाने पर मैं अपने व्यापारिक कार्यों में ध्यान नहीं दे पाया। मुझे लगने लगा कि मैं यह सब किसके लिए कर रहा हूं........ पुत्र है, तो वह अब नहीं के बराबर। उनको जब भी वापस लाने जाता, तो एक ही उत्तर मिलता "पिताजी मुझे आना होगा तो मैं स्वयं ही आ जाऊंगा।"
         पुत्र के वापस आने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी, मेरी भी अब व्यापारिक कार्यों में रुचि हटती चली गई और धीरे-धीरे कारोबार समाप्त होने को आया और मैंने व्यापार को संभाल ना पाने के कारण उसे समाप्त कर दिया, कि 1 वर्ष बाद अकस्मात में पुनः वापस आ गए........... और जब से आए हैं तब से रोज रात को कहीं जाते हैं और सुबह वापस आते हैं।उनके आने पर उनके ही आग्रह पर पुनः अपना व्यापार शुरू किया और उन्होंने ही व्यापार को संभाला परंतु जब से उन्होंने व्यापार संभाला है तबसे धन की वर्षा होती है और समृद्धि पहले से अधिक हो गई है। इसी कारण मेरे मन में संशय हो रहा है कि इतने अधिक धन वर्षा कैसे हो रही है। मैं तो आश्चर्यचकित हूं कि जो व्यापार समाप्त हो गया था उससे अचानक धन वर्षा कैसे हो रही है?
      इसीलिए मैं परेशान हूं कि कहीं यह धन उनके गलत कार्यों का फल तो नहीं..........इतना कहते-कहते उनकी आंखे नम हो गई,परंतु शीघ्रता से स्वयं को संभालते हुए उन्होंने आगे कहा-" हमारी इस गांव में बहुत इज्जत है। अगर ऐसा कुछ है तो जो हमारे लिए बदनामी की बात है मैं चाहता हूं कि तुम मुझसे बात करो और पता करो कि यह सब क्या घटना घट रही है।मुझे उनके वापस आने से बहुत अधिक खुशी हुई है परंतु इस आश्चर्यजनक परिवर्तन को देखकर हृदय से प्रसन्न नहीं हो पा रहा हूं....... मेरे मन में संशय उत्पन्न हो गया है- इसका निराकरण करो।"
        मैंने उन्हें आश्वासन दिया -"आप चिंता मत कीजिए मैं आपको वास्तविकता वास्तविकता का पता लगा कर बताऊंगा।"
   मैंने उन्हें आश्वासन तो दे दिया परंतु मैं स्वयं में संशयग्रस्त था, कि मैं जमीदार साहब का यह कार्य कर पाऊंगा या नहीं, पता नहीं मेरा मित्र मुझ पर विश्वास करेगा या नहीं। फिर भी मैं भगवान को स्मरण कर वास्तविकता को जानने की प्रबल इच्छा से उससे बात करना ही उचित समझा। मुझे मेरे मित्र का रात को बार बार बाहर जाने के समय का पता चल गया था मैं उसी समय उस के पक्ष में पहुंचा और उसे कहीं जाने की मुद्रा में तैयार देखा,तो उत्सुकता से पूछा-"कहीं जा रहे हो क्या?"
" हां"
-"क्या मुझे भी अपने साथ ले चलोगे?"
 वह रुका और बोला-"आज नहीं मित्र!पर कल तुम्हें अवश्य ले चलूंगा।"
          मैंने उसे कुछ नहीं कहा, जाने दिया वह एक घोड़े पर सवार हो गया रात के घना घोर अंधकार में लुप्त हो गया। मैं देर तक उसके घोड़े की आने वाली टापू की आवाज सुनता रहा और वहां बाहर लान में टहलता रहा।
                                                  करीब 5:00 बजे जब सूर्य की किरणें आकाश में उपस्थित हो पृथ्वी को चूमने लगी, मुझे घोड़े पर आता मेरा मित्र दिखाई दिया।मैंने देखा कि उसके चेहरे पर लावण्य झलक रहा है। उस समय उसकी आंखों की तीव्रता को शायद ही कोई सहन कर पाता। उसका चेहरा बहुत ही सुंदर लग रहा था, कुल मिलाकर वह अत्यंत आकर्षक लग रहा था। मैंने उसका ऐसा रूप पहली बार देखा था और स्तंभित सा देखता ही रह गया।
              वह घोड़े से उतर गया और मेरी ओर हौले से मुस्कुरा कर अपने कक्ष में चला गया।
      उसके आने के बाद मैं भी अपने कक्ष में चला गया और स्नान वगैरह कर आराम करने लगा दिन के 10:00 बजे मुझे मेरे मित्र ने बुलवाया, मैं उससे मिलने पहुंचा, तो उसे देखने पर मुझे उसमें सुबह वाली कोई चीज नहीं दिखी। वह कुछ बोलता, उससे पहले ही मैंने उत्सुकतावश पूछ लिया- यह परिवर्तन कैसा है? यह क्या है? इसका क्या रहस्य है तुम कहां जाते हो?प्रातः जो आकर्षण तुम्हारे चेहरे पर था वह इस समय क्यों नहीं है?
    वाह मेरे इतने सारे प्रश्नों को सुनकर हंसा और बोला-" तुम मेरे अंतरंग मित्र हो, तुम्हें यही सब बताने के लिए ही तो बुलाया हूं इन 2 वर्षों में जो कुछ घटा है वह तुम्हें बताना चाहता हूं।"
       मैं जानता हूं कि तुम कल पिताजी से मिले हो और पिताजी के मन में यह संशय है कि मैं गलत कार्य कर रहा हूं,गलत लोगों के बीच फंसा हू। तुम वास्तविकता जानना चाहते हो और मैं भी एक मित्र के नाते तुम्हें सब बताऊंगा। मैं तुमसे एक प्रार्थना करता हूं कि तुम पिताजी के मन से इस संशय को समाप्त करने में मेरी मदद करो क्योंकि मैं ऐसा कोई कार्य नहीं कर रहा हूं।
                    तुम्हारे जाने के बाद मैं बहुत अकेला रह गया, मैं दिन भर उन्ही स्थानों पर घूमता रहता,जहां हम दोनों एक साथ खेलते हुए घूमते थे। करीब महीने भर बाद मुझे जंगल में एक बाबा मिले। उन्होंने मेरी ओर देखा और उपेक्षित भाव से चल दिए। मैं यह सहन नहीं कर पाया और उनके पीछे पीछे चल दिया,परंतु तेज धूप और सुबह से भूखा प्यासा रहने से बेहोश हो गया।
          जब मुझे होश आया, तो देखा वही बाबा बैठे हैं। मैं स्वयं में कमजोरी अनुभव कर रहा था, अतः पुनः लेट गया बाबा कुछ पूजा कर रहे थे। अचानक वहां सुगंध तैरने लगी मैं आश्चर्य में पड़ गया है कि बाबा ने ना तो धूप जलाई है और ना ही अगरबत्ती और ना ही पुष्प.......तो फिर यह सुगंध कहां से आ रही है?
           अगले दिन जब हमें स्वस्थ हुआ, तो बाबा से पूछा कि यह सुगंध कहां से आ रही थी। बाबा ने कोई उत्तर नहीं दिया बल्कि मुझे हजार रुपए पकड़ाते हुए कहा, कि मैं अपने घर जाने के के लिए किसी गाड़ी का इंतजाम कर लो मैं वहां से निकला थोड़ी ही दूर पर मुझे गाड़ी नहीं मिल गई है और मैं घर आ गया।घर पर आकर मैं सोचता रहा कि वह सुगंध किसकी थी और फकीर के भेष में रहने वाले बाबा के पास हजार रुपए कहां से आये........ मेरा मन संशयग्रस्त हो रहा था।
        मैं अगले दिन पुनः उस स्थान पर पहुंचा जहां पर बाबा जी रहते थे।एक तरह से उनके व्यक्तित्व मुझे आकर्षित कर लिया और मैं रोज रोज वहां जाने लगा।शुरू में तो वह मुझे भगा देते हैं,कुछ ऐसा कराते कि मेरा मन तृष्णा से भर उठता,लेकिन अगले रोज फिर मेरे कदम उधर बढ़ जाते। मेरा रोज रोज वहां जाने से धीरे-धीरे घनिष्ठता स्थापित हो गई। वे मुझे अपने अनुभव बताते, बातों बातों में ही मुझे पता चला कि वह तांत्रिक क्रियाओं के ज्ञाता है और मुस्लिम तंत्र में उन्हें विशेष महारत हासिल है।
           "धीरे धीरे वे मुझे प्रयोग भी सिखाने लगे,मुझे भी इसमें आनंद आने लगा।मैं बाबा के साथ करीब साल भर रहा, उनके साथ रहकर ही मैंने जाना कि तंत्र वास्तव में कितना श्रेष्ठ और कितना विस्तृत है,तथा साथ ही जान सका कि उन हजार रुपए का रहस्य जो उन्होंने मुझे दिया था, जान सका उस सुगंध का रहस्य जो मैंने अनुभव किया था।
                                             उन्होंने मुझे सुलेमानी तंत्र के अनुसार होने वाली साधना इंद्राप्सरा लक्ष्मी साधना जो वर्ष में सिर्फ 1 दिन ही की जाती है बताएं और उन्होंने मुझे वह साधना अपने सामने संपन्न भी कराई। कल रात मैं उसी साधना को पुनः विधि पूर्वक संपन्न करने के लिए गया था। चुकिं मैं तंत्र साधना की ओर प्रवृत्त था और मुझे डर था, कि कहीं पिताजी को यह गलत ना लगे, इसलिए मैं बाहर एक विशेष स्थान पर जाकर साधनाएं करता था। व्यापार में जो अचानक प्रगति हुई है वह उसी साधना का प्रभाव है।"
        उन्होंने मुझे यह भी बतलाया कि उसने साधना को संपन्न कर उससे अप्सरा का नृत्य भी देखा है। मैंने अविश्वास प्रकट करने पर उससे अपनी साधना बल के माध्यम से मुझे उसकी घुंघरू की झंकार भी सुनाई और कहा की नृत्य वही देख पाता है जिसने यह साधन संपन्न की हो, बिना साधन संपन्न के नेत्रों में इतनी क्षमता नहीं आ सकती कि उसे कोई देख सके।
                 उसकी बात सुनकर पहले तो मैं आश्चर्य से भर उठा, परंतु जब उसने मुझे पूरी साधना संपन्न करवाई और मैंने इस बात की सत्यता को प्रत्यक्ष एवं प्रमाणिक रुप से स्वयं देखा और अनुभव किया तो मुझे भी उसके बाद मनाने के लिए बाध्य होना पड़ा वास्तव में यह साधना अद्वितीय है। इस साधना को संपन्न करने के फलस्वरुप मेरे परिवार में भी धन में आश्चर्यजनक वृद्धि हो गई।

सुखी पत्नी बनने के पांच फॉर्मूले


  1. पति पर पूरा-पूरा विश्वास कीजिए भूलकर भी अलग रहने या मतभेद रखने की कल्पना मत कीजिए।
  2. या तो आप अपने पास अपना 'अहम और घमंड' रख सकती हैं या पति का प्यार, दोनों में से एक।
  3. किसी बात के बिगड़ जाने पर या संकट पड़ने पर भी पति पर दोषारोपण मत कीजिए।
  4. प्रत्येक पति सुंदर और आकर्षक पत्नी देखना चाहता है, अतः स्वस्थ सुंदर संयमित और सुसज्जित बनी रहिए।
  5. उदासी चिड़चिड़ापन ताने देना गलतियां निकालना वैवाहिक जीवन के शत्रु हैं, इसकी अपेक्षा हर क्षण मुस्कुराहट के साथ पति से मिलिए यह उपाय लंबे समय तक सुखी बनाए रखने का श्रेष्ठ उपाय है।
Note-अगर आप इन विचारों से सहमत हैं तो अपने सभी विवाहित मित्रों को एक बार शेयर अवश्य करें! क्या पता किसी का जीवन खुशियों से भर उठे।।

सुगंधमोदनी अप्सरा साधना विधि



  1. इसे साधना में आवश्यक सामग्री है- सुगंधमोदनी अप्सरा यंत्र व अप्सरा माला।
  2. यह साधना 3 दिन में संपन्न होती है इसे यदि रात्रि में करे तो ज्यादा उचित रहेगा।
  3. किसी भी शुक्रवार से प्रारंभ कर सकते हैं।
  4. साधक गुलाबी रंग के वस्त्र धारण करें तथा स्वयं सुगंधित इत्र लगाकर बैठे।
  5. लकड़ी के वजोट पर श्वेत वस्त्र पर ताम्र या स्टील के पात्र में अप्सरा यंत्र स्थापित करें।
  6. यंत्र का पूजन करें तथा सुगंधित पुष्प व इत्र चढ़ाएं।
  7. घी का दीपक निरंतर जलता रहे।
अप्सरा माला से नित्य 21 माला मंत्र जप करें।
मंत्र
    ऊं ह्रीं ह्रीं सुगन्धमोदिन्यौ ह्रींह्रीं फट्

  1. जब समाप्त होने पर दूध से बना नए वेद अर्पित करें तथा वह स्वयं ही ग्रहण करें।
साधना पूर्ण होने के अगले दिन यंत्र व माला किसी नदी में प्रवाहित कर दें।
यह अप्सरा साधक को हर क्षण नित्य नूतन रूप में प्रसन्न रखती है तथा उसे अपना साहचर्य प्रदान कर आनंदित करती है, यह अति शीघ्र ही सिद्ध हो जाती है।

रंजिनी अप्सरा साधना विधि


रंजिनी अप्सरा की साधना साधारण अप्सराओं की साधनों की अपेक्षा कुछ परिवर्तन से की जाती है।सुगंधित द्रव्य एवं विविध आभूषणों में तीब्र रुचि रखने वाली स्वामी अप्सरा की साधना सायं के प्रथम पहर में ही की जाती है जिसमें साधक को के लिए आवश्यक है कि वह अपने साधनों स्थलों को भली-भांति सजा सवार कर रखें, यदि संभव हो तो वह कमरे में केवड़े की बला लाकर स्थापित करें, अन्यथा केवड़े के जल का छिड़काव सारे कमरे में कर दें। इस साधना में हल्के हरे रंग का विशेष महत्व है, साधक के लिए वस्त्रो का कोई बंधन नहीं। अपनी रुचि के अनुसार पैंट शर्ट पायजामा कुर्ता कुछ भी पहन सकता है और स्त्रियां जैसे चाहें अपना श्रृंगार कर इस साधना में बैठ सकती है किंतु आसन और सामने लकड़ी के वजोट पर बिछाया जाने वाला वस्त्र हल्का हरा रंग होना आवश्यक है, यदि यह रेशमी हो और उसके चारों कोने पर सुनहरी गोटे लगे हो तो और अधिक अच्छा माना जाता है।
                             चंदन अथवा केवड़े की सुगंध वाली अगरबत्ती जलाकर वातावरण को शुद्ध करें और रंजनी अप्सरा के आवाहन और प्रत्यक्षीकरण का विशिष्ट उपाय "शुभांगी रंजनी यंत्र" स्थापित कर माला से निम्न मंत्र का 11 माला जप करें। यंत्र पर किसी सुगंधित पुष्प की पंखुड़ियों की वर्षा करें और हिना का इत्र लगाएं दीपक की इस साधना में कोई आवश्यकता नहीं है। जब मंत्र जप के उपरांत अप्सरा प्रगट हो तो उसकी साक्षात उपस्थित होने पर उसे कोई आभूषण भेंट करे, अन्यथा सामने स्थापित यंत्र पर पहले से ला कर रखी कोई सुगंधित पुष्प माला चढ़ावे।
        अप्सरा साधना व्यक्ति को सिद्ध तो प्रथम बार में ही हो जाती है लेकिन वातावरण में व्याप्त किन्ही दूषित प्रभाव के कारण इसका प्रत्यक्षी कारण नहीं हो पाता है, जिसके लिए हताश और निराश होने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह साधना 5 दिनों की है जो सप्ताह के किसी भी दिन प्रारंभ की जा सकती है और श्रेष्ठ साधकों का एक मत से कहना है कि वास्तव में यह अप्सरा साधना प्रथम बार में ही सिद्ध हो जाती है।
मंत्र
ॐ ऐं रंजिनी मम प्रियाय वश्य आज्ञा पालय फट्

अष्ट नागिनी साधना विधि


इस साधना को संपन्न करने के लिए साधक सर्व प्रथम पूज्य गुरुदेव से अनुमति प्राप्त करें और तत्पश्चात रविवार को "अष्ट नागिनी मुद्रिका" स्थापित करें और "नागेश माला" से निम्नलिखित नागिनी मंत्र का नित्य एक माला जाप करें -
         "ॐ हुंं हुं शंखिनी वायुमुखी हुं हुं"
तीन दिवस के पश्चात यंत्र तथा माला को नदि या कुएं में विसर्जित कर दें साधना की समाप्ति पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नागकन्या सहायता करती है।
साधना काल में पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करें।
 सात्विक आहार लें।
व्यर्थ के वाद विवाद से बचें
साधना काल में अति संयमित होने से बचे
  

अष्ट नागिनी तंत्र


यायावर जीवन का यही लाभ है। शुभ अवसर प्राप्त होते ही परम पूज्य गुरुदेव की अनुमति प्राप्त कर भ्रमण पर निकल पड़ता और इसी क्रम में उन महान सिद्धौ और जोगियों के साहचर्य का सौभाग्य भी मुझे मिल जाता जो भारत भूमि को अपने तप पुण्य और ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते हुए स्वयं को एकांत में छुपाए साधनारत हैं। घटना मेरे काशी प्रभास की है विगत 3 माह से काशी के गोपनीय सिद्ध स्थल पर निवास कर रहे कुछ उच्च कोटि की साधनाओं में रात होने के लिए कृतसंकल्प था। यह गुरुदेव जी की कृपा दृष्टि ही थी जो इस अपरिचित क्षेत्र में साधनारत होते हुए मुझे अभी तक किसी व्यवधान का सामना नहीं करना पड़ा था। नित्यप्रति प्रातः बेला में गंगा स्नान कर बाबा विश्वनाथ का दर्शन करना  और पंचगंगा घाट स्थित अपने निवास पर लौट कर कुछ समय ध्यान अवस्थित रहना मेरी दिनचर्या का अभिन्न अंग बन चुका था।
 सर्पों से घिरा हुआ भीमकाय अघोरी
        ग्रीष्म ऋतु का सूर्य अपनी पूर्ण प्रखरता किए हुए आकाश में चमक रहा था ब्रह्मा घाट के निकट तपती रेत अग्निकांड के समान जल रही थी, दूर-दूर तक किसी परिंदे का भी नामोनिशान नहीं था।दहकते पाषाण खंडों पर सावधानी से पॉवर रखता हुआ मैं गंतव्य घाट की ओर गतिशील हुआ ही था कि एक विचित्र सा दृश्य सामने आ पड़ा। उस अंगारवत रेत की शैया पर एक भीषण अघोरी काया सुख निंद्रा में तल्लीन थी। वैसे तो इसके पूर्व भी मैं काशी में अनेक हट योगियों की विचित्र क्रियाओं का साक्षी बहुत रह चुका था, पर यह अघोरी कुछ अनोखा ही प्रतीत हुआ इसलिए कि यह अकेला नहीं था, बल्कि उसके चतुर्दिक कुछ विषैले नाग बिखरे हुए थे जो अपने फन उठाकर कदाचित सूर्य के प्रचंड किरणों को अवरुद्ध कर रहे थे।
    क्षणभर को एक सिहरन मेरे शरीर में व्याप्त हुई पर शीघ्र ही स्वयं को संयमित घर मै पंचगंगा घाट की ओर बढ़ चला। तैलंग स्वामी के मठ में पहुंचने के बाद भी वह दृश्य बारंबार मेरे मानस को उद्देलित करता ही रहा और अंततः गहन निशा में पुनः उसी स्थान पर जाने को मेरा मन मचल उठा जैसे कोई अदृश्य शक्ति बारंबार मुझे खींच रही हो और दबे पांव आश्रम से बाहर निकालकर मैं त्वरित गति से गंगा की ओर बढ़ चला।
      काशी के प्रसिद्ध है शमशान मणिकर्णिका घाट से गुजरते हुए कई अघोरियों से सामना हुआ जगह-जगह जिताएं जल रही थी। चड़़ चड़ की आवाज के साथ मृत मानव-देह के अवशेष अग्नि में तिरोहित होकर वातावरण को अजीब गंध से भर रहे थे। शुद्र मानव-देह कि निस्सारता का बोध कराते हुए कई अघोरी श्मशान साधना में लीन थे, तो कुछ श्मशान जागरण प्रयोग कर रहे थे पर इन सब से बेखबर मै ब्रम्हा घाट पर उसी अघोरी की झलक देखने को व्याकुल हो रहा था।
   अपने अनुमानित स्थल पर उस भीमकाय अघोरी की ज्यों का त्यों पड़ा देखकर मेरी आंखें प्रसन्नता से चमक उठी, उसके अलमस्त मुद्रा उसकी संपूर्ण स्पृह अवस्था का सूचक लग रही थी पर इससे पूर्व कि मैं उसके सन्निकट पहुंचू एक विशालकाय नागराज ने मेरा मार्ग अवरुद्ध कर दिया, उसकी भयानक फुफकार से चौककर मैंने सिर उठाया,कि उसके मस्तक पर सुशोभित दिव्य मणि पर मेरी मेरी दृष्टि स्थिर हो गई।जीवन में पहली बार किसी मणिधारी सर्प के दर्शन मुझे हुए थे और मैं मन ही मन गुरु मंत्र स्मरण करता हुआ, उस यमदूत के समक्ष अविचलित भाव से खड़ा था।
  निरुपाय और पराजित सा वह नागराज पीछे की ओर लौट पड़ा और इसके साथ ही अघोरी की स्नेहासिक वाणी मेरे कानों में ध्वनित हुई।आखिर तुम आ ही गए, तुम्हारी प्रतीक्षा में ही मैं यहां पर लेटा था कुछ अचंभित सा होकर मैं पास पहुंचा और गुरुदेव के सन्यासी शिष्य के रूप में उसे अपना परिचय दिया ही था कि प्रसन्नता के अतिरिक्त में वह अघोरी उठकर बैठ गया और मुझे अपना अंक में भीच लिया। करुणा पूरित हस्त मेरे सिर पर फेरता हुआ वह मेरे भाग्य की सराहना करता रहा और मेरे काशी निवास का प्रयोजन पूछा।
           मणियों के प्रकाश से झिलमिलाते उस रेत पर हमने संपूर्ण रात्रि व्यतीत कर दी। शिशुओं की किलकारी भरते हुए वह अघोरी अपने वाममार्गी पंथ की अनेक रोचक घटनाएं मुझे सुनाता जा रहा था बिना इस ओर ध्यान दिये कि मैं उसके संस्मरण की अपेक्षा उसके विचित्र मणिधारी सर्प की क्रीड़ाए देखने में तन्मय था। इतना तो मेरे मानस में स्पष्ट था कि वह साधारण सर्प नहीं थे वरन अलौकिक जगत से संबंधित प्राणी विशेष थे जिन्हें यह अघोरी अपनी साधना के बल पर वशीभूत किए हुए था।
        अरुणोदय की प्रथम किरण धरती पर अवतरित होते ही सभी नाग सहरसा अदृश्य हो गए, तभी वह अघोरी उठ खड़ा हुआ और विनम्र भावों में निवेदन करते हुए कहा निश्चय ही मैं पुणात्मा हूं जो आपका दर्शन पा सका। मेरे जीवन की सबसे बड़ी आकांक्षा ही यही है कि मात्र एक पल के लिए ही सही परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी के चरणो में बैठ सकूं। मेरी इच्छा तो ना जाने किस जन्म में पूर्ण होगी पर यह मेरा परम सौभाग्य होगा यदि आप कुछ समय के लिए मेरे आतिथ्य स्वीकार करें। मेरी कुटिया गंगा के दूसरे तट पर ही है आशा है आप मेरा आग्रह अस्वीकार ना करेंगे।
                गंगा पार करने के लिए नौका की आवश्यकता थी। अघोरी ने किसी मांझी की तलाश में नजर दौड़ाई पर किसी को दृष्टिगोचर ना होते देखा हुआ निराश सा हो गया। उसकी परेशानी देखकर मैंने होठों पर हल्के मुस्कुराहट दौड़ाई और मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर आश्वस्त करते हुए कहा नौका की आवश्यकता नहीं और इतनी सुबह किसी मल्लाह का इस निर्जन तट पर मिलना भी संभव नहीं। गुरुदेव की असीम कृपा से मैंने जल गमन प्रक्रिया सिद्ध कर रखी है। तुम मात्र मेरा हाथ पकड़े रहना।
             गंगा पार एक सुरम्य स्थान पर अघोरी की कुटिया थी जिसमें एक आसन व कुछ तांत्रिक वस्तुएं के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। प्रेम पूर्वक मुझे आसन पर बैठा कर उसने मुझे कुछ खाने का आग्रह किया। उस निर्जन स्थान पर कुछ खाद्य सामग्री उपलब्ध होने की आशा करना ही व्यर्थ था।मैंने हंसकर टालना चाहा, पर जब उसका आग्रह बढ़ता ही गया तो मजाक करते हुए मैंने कहा यदि तुम मेरा स्वागत करना ही चाहते हो तो मुझे छप्पन भोग मंगा कर खिलाओ। मेरी फरमाइश सुनकर वह अघोरी अत्यंत प्रसन्न हुआ और कुछ अस्फुट मंत्रोच्चारण करने लगा।
        रूपसी नाग कन्या से साक्षात्कार:-
दूसरे हे झण एक अप्रतिम षोडशी चांदी की थाल लिए मेरे समक्ष उपस्थित हो गई। उसके कंचनवत् शरीर से अपूर्व सुगंध प्रभावित हो रही थी। मैंने स्वयं को संयमित रखने का प्रयत्न कर ही रहा था कि वह रूपसी थाल मेरे सामने रखकर अदृश्य हो गई। नजर उठाकर देखा तो वास्तव में ही 56 प्रकार के व्यंजन मेरे लिए मंगाए गए थे। वह अलौकिक भोज अत्यंत स्वादिष्ट व तृप्ति दायक था, पर उस पुरे समय अंतराल में मेरा ध्यान उस सौंदर्य की प्रतिमा पर ही लगा रहा। रह रह कर उस कन्या का सौंदर्य मेरी आंखो के सामने जादू सा चमक उठता था।भोजनोपरांत मैंने अघोरी से उस कन्या का परिचय जानना चाहा, तो वह शांति स्वर में बोला -"वह नागकन्या थी"
            - नाग कन्या!सुनते ही मैं उछल पड़ा।
               -हां! पर वह मेरी आज्ञाकारी सेविका है। साधना से मैंने उसे वशीभूत कर रखा है, उस लोक के अन्य सर्प भी मेरे अनुचर हीं हैं।
            अघोरी अत्यंत निश्चिंतता से अपने सुख ऐश्वर्य का बखान कर रहा था।
         - पर मैं तो अभी तक कपोल कल्पित ही मानता था। क्या अभी भी नाग जाती का अस्तित्व पृथ्वी पर विराजमान है?  मैं अपनी जिज्ञासा रोकने में असमर्थ था।
              अघोरी ने रहस्य उद्घाटन करते हुए बताया- हमारे पुराणों में कई स्थानों पर नागों का वर्णन आया है। महाभारत काल में तो श्रेष्ठ पांडु पुत्र अर्जुन ने नागकन्या उलूपी से विवाह भी किया था। स्वयं भगवान श्री कृष्ण की रानियों में कई नागकन्या भी शामिल थी परंतु भारतीय पुराणों की विचित्र अदाओं को देखकर लोग इन्हें कपोलकल्पित मान लेते हैं अथवा उन्हें प्रतीक रूप में वर्णित किया हुआ समझ लेते हैं, जबकि यह सभी कथाएं शत-प्रतिशत प्रमाणित और विश्वसनीय है। इन सभी में नागों को भी मनुष्य की भाती ही निरूपित किया गया है, परंतु नाग जाति मानव से अधिक विलक्षण वह शक्ति संपन्न होती है तथा अपनी इच्छा अनुसार शरीर धारण कर लेने की क्षमता भी इनमें होता है। अतः साधना के बल पर इन्हें वशीभूत कर मनोवांछित कार्य संपन्न कराया जा सकता है।
     सृष्टि का एक नवीन रहस्य मेरे समक्ष अनावृत हो रहा था अत्यंत विनम्र निवेदन करते हुए मैंने जब अघोरी से नागो को वशीभूत करने की साधना का रहस्य जानना चाहा, तो उन्होंने कहा अष्ट नागनी तंत्र के माध्यम से नागिनीयो को अपने अनुकूल बनाया जा सकता है। यह 8 विलक्षण शक्ति संपन्न नागनीया है-अनंतमुखी, शंखिनी, वासुकीमुखी, तक्षकमुखी, कर्मोटकमुखी, कुलीरमुखी, पद्मिनी मुखी, महापद्म मुखी।
       नागिनियो की साधना मां बहन अथवा पत्नी रूप में की जा सकती है साधक जिस रूप में नागनियों का चिंतन करता है वह उसी रूप में साधक के साथ रहकर उसकी मनोकामना पूर्ति करती रहती हैं।

तेलिया कंद-3


मैंने इन औषधियों का प्रयोग रोगियों पर किया है और मैं आश्चर्यचकित हूं कि केवल एक या दो खुराक देने से ही मरीज का रोग हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त हो जाता है,यदि जितनी औषधियां मुझे लिखाई है उनमें से किसी एक में भी यदि कोई  वैद्य परांगत हो जाए,तो केवल उसी से वह असीमित लोकप्रियता प्राप्त कर सकता है और आर्थिक दृष्टि से पूर्ण संपन्नता प्राप्त कर सकता है।   
                        मैंने यह भी अनुभव किया कि उन्होंने मुझे जितनी भी औषधियां दिखाई है उनका विवरण कहीं पर भी आयुर्वेद के ग्रंथों में नहीं मिलता, पूरे आयुर्वेद के ग्रंथों को टटोलने पर भी इनमें मुझे इस प्रकार की औषधियों का विवरण एवं निदान नहीं मिला, इससे यह स्पष्ट है कि यह सर्वथा मौलिक और प्रमाणिक है क्योंकि यह अनुभूत हैं।
                   एक दिन चर्चा के दौरान तेलिया कंद के बारे में बातचीत चल पड़ी तो मैंने निवेदन किया कि इसके बारे में कई ग्रंथों में पड़ा है और सैकड़ों लोगों के मुंह से इसके बारे में सुना है, क्या आपने इसको देखा है?
                 उन्होंने उन्होंने कहा कि मुझे इसके बारे में हल्का सा संकेत है अभी प्रयास करेंगे।
     कुछ समय बाद ऐसा अवसर मिला और उनके साथ मुझे नैनीताल की तरफ जाने का अवसर मिला। दिल्ली से नैनीताल किसी कार्य से पंडित जी को जाना था मुझे भी उन्होंने साथ में ले लिया काठगोदाम के पास जब हमारी कार पहुंची तब तक रात के 9:00 बज चुके थे।एक क्षण के लिए सड़क पर ही उन्होंने कार रुकवाई, उनका विचार रात्रि को काठगोदाम में ही उनके प्रिय शिष्य शर्मा जी के यहां रुकने का था, परंतु दो  तीन झण विचार करने के बाद व्यस्तता की वजह से या जल्दी वापस लौटने की वजह से काठगोदाम बिना रुके नैनीताल पहुंचने का निश्चय कर लिया।
      कार वे स्वयं चला रहे थे और पीछे की सीट पर मैं बैठा हुआ था वह नैनीताल की सड़क पर खतरनाक मोड़ो को सावधानीपूर्वक पार कर रहे थे काफी आगे जाने पर मुख्य सड़क को छोड़कर बाईं तरफ पतली से सड़क पर बढ़ गए।
        मैंने जिज्ञासा प्रकट की तो उन्होंने बताया कि यह पटवा डागर सड़क है।
   आगे चल कर उस सड़क से भी बाई तरफ मुड़ गए।मैंने देखा कि दूर कहीं पर आग से जलती हुई दिखाई दे रही है, मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने बताया कि यह आग नहीं है अपितु कोई चमत्कारी पौधा है जो की रात्रि को चमकता है। उस पौधे की पहचान दिन को हो ही नहीं सकती,क्योंकि रात्रि को ही यह पौधा चमकता है, ऐसा इसलिए इस पौधे को पहचानने के लिए कुशल वैद्य को रात को ही मालूम कर निशान बना लेना चाहिए ,जिससे कि प्रातः काल उसे ढूंढने में सहायता मिले।
        उन्होंने सड़क पर ही कार छोड़ दी और आगे बढ़ गए, मैं भी उनके साथ था। मैंने देखा कि मुझसे कुछ ही दूरी पर वह चमकता हुआ पौधा खड़ा था।मुश्किल से 10 या 12 फीट की दूरी रही होगी, उसके पत्ते टीम टीम कर रहे थे वह स्थान पहाड़ों के मध्य में है और मुख्य सड़क से लगभग 2 या 3 किलोमीटर अंदर है। पंडित जी ने वहां पर चार पांच पत्थरों को एक के ऊपर एक रखकर निशान बना लिया और वापस लौट गए।
     कार से पुनः एक बार तो काठगोदाम जाकर विश्राम करने का विचार किया परंतु फिर वे नैनीताल की तरफ बढ़ गए और वहां एक होटल में जाकर ठहर गये।
        दूसरे दिन उन्होंने कार को वही रहने दी और मुझे साथ लेकर पैदल ही चल पड़े।डांगर सड़क पर आकर हम आगे बढ़े और दिन के लगभग 11:00 बजे तक हम उस स्थान पर पहुंच गए जहां कल रात को गए थे। इस समय यहां पर कोई ऐसा पौधा दिखाई नहीं दे रहा था, इसमें से प्रकाश आ रहा हो,या  जिसके पत्ते जुगनू की तरह टिमटिमा रहे हो।       

 तेलिया कंद की पहचान :- 

                         हम कुछ आगे बढ़े तो मुझे एक पौधा दिखाई दिया। उसकी ऊंचाई लगभग 4 फीट के आसपास थी, इसके पत्ते मूली के पत्तों की तरह बाहर निकले हुए थे, और कुल मिलाकर तीन पत्ता ही उस पूरे पौधे पर थे। इस पत्तों पर भी काले काले निशान और बिंदिया स्पष्टता के साथ दिखाई दे रही थी, पर यह पत्ते हरे ना होकर पीले रंग के थे और ऐसा लग रहा था कि इन पर तेल चढ़ा हुआ हो। इन पौधों का घेरा लगभग दो फीट था और इसका तना हाथ की कलाई जितना मोटा था। आसानी से ये तना मुट्ठी में आ सकता है। इस तने की छाल आम की छाल के जैसी दिखाई देती है और या तना भी तेल से चुपड़ा हुआ था।
         इस पौधे के आस पास और कोई पौधा नहीं था, परंतु उसके आसपास की जमीन तेल से भीगी हुई थी, मैंने जब उसके पास की जमीन पर से कुछ रेत और कंकड़ उठाए तो उसमें लगा हुआ तेल मेरे हाथों में लग गया तथा कपड़ों पर भी तेल के छींटे लग गए, ऐसा लग रहा था कि जैसे इस मिट्टी से तेल चू रहा हो।
                 गुरुजी अपने साथ एक मोटा सा रस्सा और एक कुदाल लेकर चले थे। उन्होंने मुझे उस कंद से रस्सी बांध देने को कहा और उसके आसपास की जमीन धीरे-धीरे खोदने की आज्ञा दी। जब चारों तरफ से एक 1 फीट जमीन खुद गई तो उस कंद की जड़े दिखाई देने लगी। यह जड़े लाल रंग के रोयेदार होती है।
                     इसके बाद रस्सी से दूसरे सिरे को लेकर मुझे पास में खड़े एक पेड़ पर चढ़ जाने को कहा। रस्सी का दूसरा सिरा उस तने से बांधा हुआ था। उसके पास ही कुदाल रख दी गई और गुरु जी स्वयं भी पेड़ पर चढ़ गए।इस कंद से पेड़ की दूरी लगभग 10 फीट थी, पेड़ मजबूत तथा ऊंचा था।जब गुरु जी इस पर चढ़ गए तो मुझे रस्सी को जोर से खींचने के लिए कहा।
      मैंने जब झटके देकर रस्सी को खींचा तो आठ दस बार के झटकों के बाद कंद जड़ से उखाड़ कर बाहर निकल आया पर साथ ही एक भयंकर पुकारता हुआ सर्प भी बाहर निकल आया जो कि काले रंग का था और बाकी लंबा था साथ ही साथ उसके शरीर पर सफेद चिखते थे।ऐसा लग रहा था जैसे वह फुफकार रहा हो और अत्यंत क्रोधित हो।
        उसने बाहर निकलते ही जोरो से पुकार मारी और पास पड़ी कुदाल को ही अपना शत्रु समझ कर उस पर जोर से दांत गड़ा दिए। मैं पेड़ पर बैठे-बैठे भी भय से कांप रहा था इतना मोटा और क्रोधित अवस्था में सर्व मैंने इससे पहले नहीं देखा था
   5 मिनट के अंतराल में उस सर्प ने आठ 10 बार क्रोध से अपने दांत कुदाल में गड़ा दिए और कुदाल पर ही फन पटकता रहा ,लगभग 10-12 मिनट में ही सर्प पछाड़ खाकर समाप्त हो गया।अब जब ऊपर से देखा कि सर्प मर गया है तब भी लगभग 15 मिनट तक नीचे उतरने की हिम्मत नहीं हुई ।गुरुजी ने बताया कि यह सिर्फ अत्यंत भयानक होता है और सामने जिसको भी देखता है उसी को भाग कर काट खाता है। कई बार तो यदि नीचे कोई व्यक्ति होता है तो उसके पीछे मिल दो मिल भाग कर भी उसे काट आता है।एक बार के काटने से ही व्यक्ति तुरंत समाप्त हो जाता है क्योंकि इसमें अत्यंत तीव्र विष होता है।
                  इसके बाद गुरु जी नीचे उतर आए, उनके साथ ही साथ मैं भी नीचे उतर आया और हम उस कंद के पास पहुंचे।मैंने देखा कि कुदाल पर सर्प ने जिस प्रकार से दांत मारे थे,उससे लोहे जैसा शख्स धातु पर भी उसके दांतो के निशान पड़ गए थे।इसी से ज्ञात होता है कि वह सर्प कितना अधिक क्रोधित अवस्था में भयंकर होगा। जहां पर सांप ने दांत गड़ा दिए थे वहां से पीली पीली धराए भी साफ दिखाई दे रही थी जो कि सर्प के मुंह से निकली विष की धाराएं थी।
               खींचने से कंद जड़ सहित बाहर निकल आया था, उठाने पर इस का वजन लगभग 5 से 6 किलो के बीच था। आश्चर्य की बात यह थी कि जड़ सहित कंद के बाहर निकालने पर उसमें से तेल का सोता सा फूट पड़ा और बाहर तेल की नदी बह निकली।आधे घंटे बाद भी उस सोते में से अंगूठी जैसी धार बाहर निकल कर बह रही थी हम कंद को लेकर नैनीताल लौट आए और वहां से पुनः दिल्ली होते हुए घर लौट गए
       यह कंद पंडित जी उखाड़ना नहीं चाहते थे परंतु वह कुछ तो मुझे ज्ञान देने के लिए और कुछ इससे संबंधित प्रयोग करने के लिए उस अकाउंट को उखाड़ना पड़ा था। पंडित जी ने बतलाया कि मुझे इसके बारे में हल्की सी जानकारी थी क्योंकि सीताराम स्वामी ने पूरे भारत में मात्र 6 स्थानों पर तेलिया कंद होने की जानकारी दी थी। उनमें से एक स्थान यह भी था इसमें पहले भी मैं इधर तीन चार बार आया था परंतु इस पौधे की खोज नहीं हो सकी थी या इसके बारे में मालूम नहीं पढ़ सका था।
                साल भर पहले जब मैं सीताराम स्वामी के पास पुनः गया था और उन्हें बताया था कि तेलिया कंद का पता नहीं लगा है तब उन्होंने मुझे बताया था कि दिन को तो इस पौधे को पहचाना ही नहीं जा सकता, क्योंकि इसकी पहचान यही है कि रात में इसके तने और इसके पत्ते जुगनू की तरह चमकते हैं।
              घर आकर पंडित जी ने इस कंद से कई प्रयोग और लगभग 108 प्रकार की दवाई तैयार किए। वे सभी गुरु की आज्ञा न होने के कारण मैं लिख नहीं पा रहा हूं परंतु मैंने देखा है कि यह औषधियां आश्चर्यजनक और अद्भुत है। वस्तुतः तेलिया कंद पौधे का प्रयोग भाग अपने अपने आप में दि दिव्य गुण समेटे हुए हैं।
              लेख के प्रबंधन में इस औषधि के लाभ और जिन रोगों पर इसके प्रभाव बताएं हैं या आयुर्वेदिक विशेषज्ञ द्वारा आयुर्वेद ग्रंथों में इसके लाभ के बारे में जो कुछ बताया गया है वह तो शत प्रतिशत सही है ही, परंतु इसके अलावा भी इससे सैकड़ों तरह की दुसाध्य बीमारियों का निदान भी हो सकता है। अभी तक संसार कैंसर की बीमारी का इलाज खोजने में समर्थ नहीं हो पाया है, और उनको यह भी ज्ञात है कि कैंसर का इलाज एकमात्र तेलियाकंद से ही संभव हो सकता है।
                 परंतु अभी तक संसार को तेलियाकंद के बारे में प्रमाणित जानकारी नहीं मिल पाई थी,पर इस खोज से आयुर्वेद जगत में सुखद आश्चर्य है परिवर्तन हुआ है और निश्चय ही आने वाली पीढ़ियां है इसका मूल्यांकन कर सकेगी कि इसके खोज से संसार को कितना लाभ हो पाया है।

Note- पोस्ट में "मैं" शब्द का मतलब उन साधकों से है जो इस घटना के साक्षी भूत रहे हैं।

सुगन्धमोदिनी अप्सरा


देवलोक की अद्वितीय सुंदरी जिसके अंग अंग से मादक सुगंध बिखरती है जो अपनी सुगंध से साधक को उन्मादित कर देती है और यह अप्सरा प्रत्येक साधक के लिए सहज सुलभ है ,क्योंकि यह देव अप्सरा मानव संपर्क में आने के लिए आतुर रहती है। और इसअप्सरा को आप भी अपनी प्रियतमा अपने सहकारी बना सकते हैं इस गोपनीय दुर्लभ प्रयोग को संपन्न करके........

       मैंने अप्सराओं के विषय में अत्यधिक रोचक प्रसंग सुन रहे थे, कि उनके साथ रहने पर हर क्षण ह्रदय में ताजगी का अनुभव होता है,परंतु अप्सराओं का साहचर्य किस प्रकार की आनंदभूति प्रदान करता है यह मैं प्रत्यक्ष अनुभव करना चाहता था।
                    इसके लिए मैं कई ऐसे साधकों से मिला जो स्वयं को कहते थे कि उन्हें अप्सरा को सिद्ध कर रखा है और अप्सरा उनकी सहचारी है। जब मैंने उनसे अप्सरा सिद्ध करने की विधि पूछी तो मुझे निराशा हाथ लगी, किसी किसी ने मुझे विधि तो बताई परंतु उससे मुझे नाम मात्र का भी एहसास नहीं हुआ।
        मुझे निराशा भी होती परंतु एक आस में मैं निरंतर अप्सरा साधना की विधि पाने के लिए बेचैन था। एक दिन मुझे मेरे एक मित्र ने बताया कि मेरे गुरुदेव डॉक्टर नारायण दत्त श्रीमाली जी हैं,यदि तुम उनसे जाकर मिलो तो हो सकता है कि तुम्हारी इच्छा पूर्ण हो सके।
     उसके कहने पर मैं उनसे दिल्ली में मिला।उनके चेहरे पर अद्भुत तेज झलक रहा था। मैं उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। उन्हें देखकर मुझे लगने लगा कि शायद यही पर मेरी मनोकामना पूर्ण हो जाए।
         मैं जब उनसे मिला और उनके समक्ष अपनी इच्छा व्यक्त की तो उन्होंने मुझे बताया अप्सरा एक या दो नहीं होती है अप्सराएं तो 108 प्रकार की होती है परंतु मानव को उसी अप्सरा को सिद्ध करने का प्रयत्न करना चाहिए जो उनके अनुकूल हो
उन्होंने मुझे सुगंधमोदिनी अप्सरा सिद्ध करने के लिए कहा और बताया कि यह अप्सरा शीघ्र ही प्रसन्न होकर सिद्ध हो जाती है।फिर उन्होंने मुझे अप्सरा साधना सिद्ध करने की विधि बताई और कहा कि इसे तुम यदि पूर्ण दृढ़ भाव और विश्वास से करो तो सुगंधमोदिनी अवश्य तुम्हारी सहचरी बनेगी।
       और उनकी आज्ञा अनुसार मैं इस साधना को संपन्न करने के लिए बैठ गया। मैं उनके निर्देशन में ही साधना को पूर्ण करना चाहता था,इसलिए दिल्ली में ही एक कमरा किराए पर लेकर यह साधना सिद्ध करने लगा। साधना 3 दिनो की ही थी। प्रथम दिन तो साधना भली प्रकार से बिना किसी भी विघ्न के संपन्न हो गया। मुझे कोई अनुभव नहीं हुआ मैं दुविधा मैं विचारों में झूलने लगा परंतु गुरुदेव की दृढ़ता और विश्वास की बात जो याद कर पुनः स्वयं के विचारों में स्थिरता स्थापित किया और दूसरे दिन की साधना संपन्न करने के लिए बैठा
       अभी मंत्र जप आधा ही हुआ था कि अचानक मुझे अनुभव हुआ कि जैसे मेरे आसपास के वातावरण में असंख्य फूल खिले हैं या इत्र छिड़का हुआ है जिसकी सुगंध से मुझे अत्यंत आनंद का अनुभव हो रहा था। धीरे-धीरे दूसरे दिन की साधना संपन्न हो गई,परंतु अगले दिन भी मुझे अपने शरीर में व्याप्त सुगंधा का एहसास हो रहा था,ऐसा लग रहा था कि मैंने इत्र में स्नान किया हो। मुझे अपने चेहरे पर कुछ अलग ही चमक अनुभव हो रही थी। स्वयं को अनुभव हो रहा था कि आनंद का झरना बह रहा हो।
     हालांकि एकांत में ही इस साधना को कर रहा था पर मैं जहां रह रहा था वहां पर अगल बगल के लोगों ने भी उस सुगंध का एहसास किया।
                 तीसरे दिन जब साधना शुरू की तो वह सुगंध और तेज होती जा रही थी साधना क्रम जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा था सुगंध का प्रभाव बड़ता जा रहा था,धीरे-धीरे मुझे एहसास होने लगा कि मेरे अलावा कोई और कक्ष में उपस्थित है,परंतु गुरुदेव की आज्ञा थी। कि जब तक पूर्ण मंत्र जप संपन्न ना हो जाए तब तक आसन को ना छोड़ो और ना ही मंत्र जप को रोको, दो मालाएं अभी बाकी थी कि मेरे सामने प्रत्यक्ष एक आकृति स्पष्ट हो रही थी जो किसी स्त्री की ही लग रही थी। मैंने मंत्र जप पूर्ण करके गुरुदेव को चरणों में प्रणाम कर दिया। गुरुदेव को प्रणाम करके जब मैं ने आंखें खोली तो मैं मंत्रमुग्ध सा सामने खड़ी आकृति को देखता रह गया। उसके पास से मुझे वैसे ही सुगंध का एहसास हो रहा था जो कि मुझे 2 दिनों से एहसास हो रही थी मैं उसके सौंदर्य को देखता रह गया चंद्रमा की भांति नेत्र को शीतलता प्रदान करने वाला मुख........ भू भंगिमा ऐसी प्रतीत हो रही थी जैसे कि कामदेव ने अपने धनुष की प्रत्यंचा खींची हो, घायल करने के लिए........... उसके होंठ जैसे गुलाब ने अपना गुलाबी रंग दे दिया हो...........कोमलता ऐसी कि यदि कोई छू दे तो  मैली हो जाएगी............. जगमगाता गौरवर्ण ज्ययो देवों की आभा सिमटकर सकार हो गई हो........... उसके समूचे सौंदर्य का वर्णन करना चाहता हूं,लेकिन कर नहीं पाता हूं बार-बार असफल हो जाता हूं,क्योंकि उसका स्मरण होते ही मैं विस्मृत हो जाता हूं।
     आज भी पूज्य गुरुदेव की कृपा से वह अप्सरा मेरी सहचारी बनी हुई है, और जब से उसका साथ मिला है वह पग पग पर मेरी सुख और दुख में मेरी सहयोगी बनी है। उसका साहचर्य प्राप्त कर स्वयं को धन्य अनुभव करता हूं।

   :- साधना विधि अगला पोस्ट में-:

तेलिया कंद-2


मैं पहली बार ही श्रीमाली जी से मिला था और एक 2 मिनट इधर उधर की बात होने के बाद मैंने निवेदन किया कि मुझे पता चला है कि आपने सीताराम बाबा से कुछ अचूक नुस्खे प्राप्त किए हैं और आपका आयुर्वेद ज्ञान असीमित है।
     परंतु उन्होंने मुझे भुलावे में डालने के लिए कहा कि मैं तो थोड़ा बहुत ज्योतिष जानता हूं, आयुर्वेद के बारे में मैं क्या बता सकता हूं। मुझे इसकी कोई विशेष जानकारी नहीं है मैं एक बार तो चकरा गया क्योंकि उनकी बातों से बिल्कुल ऐसा ही लग रहा था कि उन्हें वास्तव में ही आयुर्वेद के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं है, परंतु मुझे पक्के तौर पर सूचना सीताराम स्वामी के घर से प्राप्त हुई थी अतः मेरा मन यह कह रहा था कि श्रीमाली जी कुछ छिपा रहे हैं।
   बाद में मेरी बात सही निकली वास्तव में ही वह अपने आप को बहुत ही छिपा कर रखते हैं, और कुछ भी स्पष्ट करने को तैयार नहीं होते, उनका पहचान यह है कि वह अपने आप को एकांत में प्रचार प्रसार से दूर ही रखना चाहते हैं। बाहर से कई लोग उनसे मंत्र आदि सीखने के लिए आते हैं और काफी लोग शिष्य बनने की भावना भी लेकर उनके पास पहुंचते हैं परंतु वे उनको बहलाकर या फुसलाकर वापिस भेज देते हैं, उनकी यह प्रवृत्ति नहीं है कि शिष्यों की भीड़ एकत्रित की जाए।
                 परंतु कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो डटे रहते हैं ।20 बार बुलाते हैं तो 20 बार भी पहुंचते हैं पंडित जी हर प्रकार से उनकी कड़ी परीक्षा लेते हैं और विशेष रूप से यह देखते हैं कि मेरे प्रति उसके मन में कितनी गहराई के साथ श्रद्धा या विश्वास है इस संबंध में पूर्णतः निश्चिंत होने के बाद ही वे उसे स्वीकार करते हैं।
                मैंने जब उनसे आयुर्वेद के ज्ञान के बारे में जानकारी प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की तो उन्होंने अत्यंत सादगी और भोलेपन से जवाब दिया कि उन्हें कुछ भी नहीं आता, परंतु मेरा मन इस बात की साक्षी दे रहा था अब तो बहुत भटक चुका हूं, यदि कुछ मिल सकता है तो यही कुछ मिल सकता है।
             मैं तीन-चार दिन तो धर्मशाला मे रहा और  जब धर्मशाला से मुझे निकाल दिया तो मैं किसी होटल में ठहर गया, परंतु होटल में रहना काफी महंगा हो रहा था इसी बीच मैंने यह ज्ञान प्राप्त कर चुका था कि बिना जमकर बैठे यहां से कुछ भी प्राप्त नहीं होगा हो सकेगा, अतः मैंने हाई कोर्ट कॉलोनी के निकट ही एक कमरा किराया पर ले लिया।
      मैं नित्य स्नान आदि कारणों से निवृत होकर उनके घर पहुंच जाता नित्य सैकड़ों व्यक्ति बाहर से मिलने के लिए आते। घर के लॉन में बैठकर जाता मैं यथासंभव उन आने वाले व्यक्तियों की सेवा सुश्रुपा लगा रहता। दिन भर में 2 या 5 मिनट के लिए पंडित जी से मिलना होता
      1 सप्ताह बाद उन्होंने कहा कि तुम यहां अपना समय व्यर्थ कर रहे हो अपने घर चले जाओ और बाद में कभी आना
           मैंने निवेदन किया कि घर जैसा अस्तित्व तो इस संसार में मेरा है ही नहीं शादी की नहीं है, पिताजी का देहांत हो चुका है और परिवार में कोई है नहीं, अब यही पर एक कमरा किराये पर ले लिया है।
          तो उन्होंने बताया कि यहां रहने से कोई फायदा नहीं होगा और यह भी समझ लो कि मैं अपनी तरफ से रुपए पैसे के मामले में कोई सहायता नहीं करूंगा किराया देना हो या अपनी भरण पोषण करना हो वह तुम स्वयं जानो।
            मैं कुछ बोला नहीं और मन में यही निश्चय किया कि अब मैं डरूंगा नहीं और ना ही विचलित होऊंगा जो भी होगा देखा जाएगा।
      मैं नित्य इनके घर जाता, विभिन्न प्रदेशों से विभिन्न तरह के लोग वहां आते मैं उनकी सेवा करता, पानी पिलाता है या उनको जो जानकारी चाहिए थी वह देता इन आगंतुकों में धनी वर्ग होते तो मजदूर और सामान्य गृहस्थी भी, पाखंडी और ढोंगी साधु होते, तो उच्च कोटि के योगी भी ।मैंने इस अवधि में श्रेष्ठ वैद्यो को भी उनसे मिलने के लिए आते और परामर्श लेते हुए देखा है।
     इस प्रकार लगभग 6 महीने बीत गए। 6 महीने की अवधि बहुत बड़ी होती है परंतु मैं तनिक भी विचलित नहीं हुआ, मैं प्रातः स्नानादि कर 10:00 बजे के लगभग उनके घर पहुंच जाता और लॉन में अन्य लोगों के साथ बैठा रहता। रात्रि को जब अंतिम व्यक्ति उनसे मिलकर जाता तब मैं भी उठ कर अपने कमरे में चला आता।
      कई बार तो 15-15 दिन तक पंडित जी से मिलना ही नहीं हो पाता, एक दो बार तो वे कृत्रिम गुस्से भी हो गए और मुझे कहा कि तुम्हें चले जाना चाहिए और शादी वगैरा करके अपना घर बसा लेना चाहिए ।मैंने मन ही मन सोचा कि अब शादी ब्याह क्या करना है अब मेरा भविष्य तो आपके ही हाथों में है।
       परंतु मैं बोलता कुछ नहीं, कई बार उन्होंने अपने पांव ही छूने नहीं दिए,परंतु मैं यह सब समझ रहा था कि यह केवल दिखावटी और ऊपर ही गुस्सा है, इसके नीचे तो अत्यंत कोमल हृदय है, प्रेम और स्नेह की बहती हुई रसधारा है, मैं तनिक भी विचलित नहीं होता।
         6 महीने बाद एक दिन मुझे बुलाकर कहा कि तू बहुत पक्का और दृढ़ निश्चय ही है रे-
        इसके बाद धीरे-धीरे पंडित जी ने मुझे आयुर्वेद के बारे में जानकारी देनी शुरू के 1 दिन बातों ही बातों में उन्होंने कहा कि मैं जानता हूं कि तू यहां क्यों आया है, तू तेलिया कंद के बारे में विशेष रूप से जानने के लिए आया है और जीवन में पूर्णता प्राप्त करने की तेरी उत्कृष्ट इच्छा है। मैंने नम्रता पूर्वक स्वीकार किया और अपने इच्छा को उनके सामने प्रकट कर दिया।
       इस प्रकार 3 महीना बीत गए 1 दिन बातचीत का विषय तेलिया कंद पर ही चल पड़ा और उन्होंने दृढ़ता के साथ कहा कि तेलिया कंद भारतवर्ष की भूमि पर है, और इसके कई पौधे मेरी जानकारी में है मैंने स्वयं उनको देखा है, उनका प्रयोग किया है और आयुर्वेद ग्रंथों में उनकी प्रशंसा के बारे में जो कुछ लिखा है वह सब अक्षर-अक्षर सही है यही नहीं अपितु उसके बारे में जो कुछ लिखा क्या है वह तो बहुत कम है इसका महत्व तो उससे भी कई गुना ज्यादा है।
    अब मुझे धीरे-धीरे पंडित जी का साहचर्य मिलने लगा और कभी-कभी तो कल्पित क्रोध वह अपने चेहरे पर चढ़ा लेते थे वह भी दूर हो गया, साथ ही साथ उन्होंने एक दिन बैठकर मेरे भाग्य के बारे में देखा और बताया कि तुम आयुर्वेद के क्षेत्र में ही सफलता प्राप्त कर सकते हो और इसी क्षेत्र में तुम्हें उन्नति करना है।
     बाद में जब भी उनको समय मिलता मैं उनके पास बैठ जाता और वह मुझसे कई प्रकार के आयुर्वेदिक संबंधी नुस्खे मुझे बताते। सही बात तो यह है कि उनके पास आयुर्वेद संबंधी जो मौलिक प्रमाणिक और नवीन ज्ञान है, वह आयुर्वेद के ग्रंथों में ढूंढने पर भी नहीं मिलता उन्होंने इन सारे कार्यों को व्यक्तिगत रुप से किया है और उन्हें इसका अनुभव है, जब भी किसी औषधीय जड़ी बूटी के बारे में चर्चा चलती तो वे प्रमाणिक रुप से इसका उत्तर देते हैं इनके उत्तर के पीछे उनका ठोस ज्ञान होता है।
     मैं आयुर्वेद का जानकार हूं और मुझे यह स्वीकार करने में कोई हिचकिचाहट नहीं है कि आयुर्वेद के ग्रंथों को पढ़कर कोई भी भली प्रकार से चिकित्सा नहीं कर सकता और ना ही उस चिकित्सा से रोगी संतुष्ट हो सकते हैं
    उन्होंने बाबा सीताराम से प्राप्त नुस्खों को भी सरलतापूर्वक मुझे पूरी की पूरी जानकारी दी इसके लिए मैं उनका जीवन भर ऋणी रहूंगा।
     इन औषधियों से आमाशय से संबंधित रोग, दाग,गुदा रोग, शूल, सूजन,पांडु रोग,जलन,खांसी,दमा,कमला, गुर्दे की पथरी, मूत्र संबंधी रोग,मधुमेह,शक्तिया निवारण,खूनी बवासीर,सुजाक,अतिसार निवारण,काम शक्ति प्रबलता,कुकुर खांसी,पेट से संबंधित विकार,एक्जिमा,मुंह के छाले,पीलिया अंडवृद्धि रोग,दात्सुल, आंख का खिंचाव, बहरापन,कैंसर,श्वेत प्रदर,खुजली,कब्जी,हृदय की दुर्बलता आदि कई रोगों से संबंधित उपचार उन्होंने मुझे सिखाएं और औषधि की भी क्षमता से विवरण बताया यहीं नहीं अपितु उन्होंने अपने सामने औषधीय को तैयार करने की विधि भी बताई।

रंजिनी अप्सरा


क्या होता है जब किसी स्त्री या पुरुष के जीवन में अकेला चलते-चलते एकाएक कहीं बांध देता है ऐसा क्यों होने लगता है कि कल तक जो जीवन अपने आप में ही खोया खोया और अपने आप में ही मगन था, या फिर किसी के लिए छटपटाहट से भर जाता है, किसी को निहारने के लिए उसकी बस एक झलक पाने के लिए और जब तक उसकी एक झलक नहीं देख पाती तब तक सब कुछ खाली खाली और सुना सुना लगता है। क्या बातें छुपी है इसके पीछे, क्या चेहरे की कोई खूबसूरती, क्या देह का आकर्षण, दिल की कोई धड़कन खो जाने या खो जाने के ही नहीं बल्कि चुरा लेने जैसे कोई बात है? फिर लगता है कि यह खोज ही गलत है। प्रेम करने वालों ने इतना कब सोचा होगा? वह तो बस कोई तो हो ही गए अब सच्चाई बताएं कौन?फिर तो कुछ कुछ पढ़ा जा सकता है वह गहराती हुई आंखों में छुपी मुस्कुराहट से और माथे पर बिखेर आई किसी लट को हौले से अंगुली के सहारे कानों के पीछे समेटती अदाओं से अगर खामोशी पढ़ने आती हो तो नाम सुनते ही चौक कर देखना कि कोई उसके छुपे धन को तो नहीं छीन रहा, यह भाषा होती है किसी प्रेमी या प्रेमिका की......
           पर प्रेमिका शब्द आते ही व्यक्ति यू चौक जाता है जैसे उसने कोई घोर पाप हो गया हो, और वह क्षेप कार आसपास कनखियों से देखने लगता है कि कहीं उसे किसी ने देख तो नहीं लिया। प्रेमिका के विषय में सारा चिंतन एकांगी और वासना पूर्ण रहा है। प्रेमिका का तात्पर्य केवल देह तक नहीं सीमित होता प्रेमिका तो एक पूर्ण स्वस्थ और सुरुचि संपन्न पुरुष के जीवन कि यदि कहा जाए रत्नजडित मुद्रिका है, तो गलत नहीं होगा। प्रेमिका का तात्पर्य है जो केवल अपनी और भाव-भंगिमाओं से ही नहीं वरना अपने हृदय की सारी आंतरिकता और मधुरता से किसी पर रीझ जाए, इस तरह से आपके जीवन के एक-एक पल पर छा जाएं और इतने अधिक आग्रह से हर पल को समेट ले कि सारा मन भीग जाए। सचमुच लगे कि कोई है जो केवल शब्दों से ही या हाव-भाव से नहीं बल्कि अपनी आंतरिकता से मुझसे प्रेम करती है। आंतरिकता की अनुभूति ही हृदय तक उतर कर पूर्ण तृप्ति देती है। इस जगत की स्त्री का प्रेम तो एक मात्र दैहिक छल से भरा हो सकता है लेकिन अप्सरा के साथ ऐसा कोई शब्द नहीं जुड़ा। अप्सरा तो एक ऐसा नारी है जो सख्त से सख्त दिलवाले को भी प्रेमी बनाकर छोड़ें और से कठोर हृदय वाला व्यक्ति भी रीझना सीख जाए। उसे फिर उसके सिवाय कोई न भाय। सोते जागते उसे की बातें, उसे की चाहत,आंखें खोए खोए अधमुदी हो जाए। उसमें कशिश और गुलाबी रंगते उतर आए और सब पुरुष के जीवन में उतार देती है अप्सरा उसकी प्रेमिका बन कर।
           मैंने रंजिनी अप्सरा की साधना की और वह मंत्रों के विशेष प्रभाव से पहली बार में ही मेरे सामने उपस्थित हो गई। सचमुच रंजिनी अपने नाम की ही तरह रंजनी है। खूबसूरत बड़ी-बड़ी आंखें और भोलेपन के साथ कोमलता से देखने कि उसकी वह अदा कि मुझे लगा ही नहीं कि मैं पहली बार उससे मिल रहा हूं। कुछ शर्म को ओढ़कर और कुछ शर्म को छोड़कर वह आगे बढ़ी आंखों को हल्का सा झुका कर और चाल में लज्जा की धड़कन भरकर मेरे हाथों को थाम लिया।नरम और शीतल स्पर्श से मैं जागा और अपने को समझाया कि मैं स्वपन नहीं देख रहा हूं। एक अनिन्य सौंदर्य मेरे सामने इसरार कर खड़ा है। उसकी बड़ी बड़ी आंखें बोल रही थी कि मेरे सांसो में ढली सौंदर्य को निहारो! सचमुच सिर से पांव तक वह सांचे में ढली थी। पीछे की ओर खींच कर बांधे घने बाल, उसके छोटे से गोल मुखड़े को और भी खिला रहे थे। पीछे घुटनों तक जाती घनी चोटी जो पूरी की पूरी फूलो और गहनों में सजी थी ,ऐसा लगा कि पृष्ठ का श्रृंगार उसने  वेणी को फूलों से भर कर  दिया हो। गोरे माथे पर छोटी सी दिपदिप करती सुनहरी बिंदी और नाक में लगी हीरे की कनी के बीच में उसकी आंखें, दोनों झिलमिलाहटो से भी अधिक झिलमिल आ रही थी। स्वस्थ कपोल छोटा सा चींंबुक, पतले और कुछ नीचे झुकते अधर और नरम और गुलाबी गानों में लटकते स्वर्ण के कुंडल छोटी और ऐसी कोमल गर्दन जिस पर जाती नसों की धड़कनें धुक धुक करके सहमी हिरण की तरह भाग रही थी। कंधो और बाहों के सौंदर्य को बिना छुपाए वक्षस्थल को ढक रखा था। लाल रंग के रेशम और सुनहरे कढे एक वस्तु से और पीछे पीठ पर बंधी वस्त्रों की छोटी सी गांठ यो लग रही थी ज्यो तट पर कोई गुलाबी मोती आकर गिर गया हो। नाभि के नीचे घुटनों तक जंघाओं को कसे वस्त्र, जो उसकी कटी और गहरी नाभि का सौंदर्य गुलजारी कर रहा था। लाल रंग के वस्त्रों में उसका यौवन पता नहीं उसके गोरे रंग को धधका रहा था, या मुझे लेकिन उसने अपने अंग प्रत्यंग को नख से शिखा तक जिस प्रकार से सजा रखा था वह उसके जीवन को श्रृंगारित करने के साथ-साथ उसके सुरुचि प्रियता को भी बता रहा था। पांव की एक-एक अंगुलियां तक का श्रृंगार उसने मन लगाकर किया था। मैं एकटक मुक्त होकर उसके श्रृंगार और श्रृंगार से भी अधिक उसकी सुरुचि प्रियता को देख रहा था, उसके व्यवहार को परख रहा था उसने जिस तरह से आगे बढ़कर मेरे हाथों को थाम लिया उससे उसने अपना समर्पण और प्रेम को बिना कुछ कहे ही कह डाला था। उसके अंग अंग से कांति के साथ सुगंध भी आ रही थी।
                            साधना के पहले ही दिन साधना सफल होने पर किसी भी अप्सरा को केवल भविष्य के लिए वचनबद्ध किया जाता है, उसको पुष्पों का हार, तांबूल, इत्र देकर स्वागत किया जाता है, और मैंने पहले दिन इसी परंपरा को निभाया। साधना के 2 दिन बाद तक मैं किसी और व्यस्तता के कारण व्यस्त रहा और अंजनी का आवाहन कर अपनी साधना की सफलता को परख नहीं सका। तीसरे दिन एकांत में अवसर मिलने पर जब हमें अकेलापन अनुभव हो रहा था, तब मैंने उसके आवाहन मंत्र का निश्चित संख्या में उच्चारण कर उसे बुलाया। रंजनी अपने वचन के अनुसार मेरे सामने आकर अपने मादक गंध के साथ बैठ गई। कुछ छेड़ने  और कुछ मोहित होने के मिले-जुले भाव लेकर वह होले होले पलके उठा कर मेरी ओर देखती रही और अपने पांव के अंगूठे से गुप चुप रहकर जमीन कुरेदती रही। मैंने निगाह उठाकर उसकी ओर देखा आंखों में उलाहना भरी थी जो सीधे मेरे अंदर तक उधर चली गई। मैंने कुछ बोलने से पहले बोली 2 दिन हुए तुम्हें तो मेरे लिए समय ही नहीं था। मैं उसकी आंखों में एक टक देखता आंखों ही आंखों से मुस्कुरा दिया। उसकी शिकायत भरे स्वर की नरमी से मेरे मन का तनाव कहीं हवा में तैर गया।
       प्रेमिका का अर्थ तो मैं रंजिनी की निकटता प्राप्त होने से ही समझ सका और रंजनी ने भी सभी बंधन तोड़ कर प्रेमिका की तरह ही मेरे साथ व्यवहार किया शुरू कर दिया, बाद में तो उसको बुलाने के लिए किसी आवाहन मंत्र की भी कोई आवश्यकता नहीं पड़ी, वह हर पल मेरे साथ रहने लग गई जब मैं सभी के बीच में रहता तो अदृश्य रहकर मेरे साथ रहती है और जब जरा सा भी एकांत हुआ  झट सपने पूरे श्रृंगार के साथ मेरे सामने आकर, मेरे साथ मेरे मित्र बन कर, कभी अपने रूप और यौवन से मुझे मुग्ध कर देती थी, तो कभी तनाव में देखकर वह अपनी बातचीत की अदा से बातों को कहीं और घुमाकर और इतने पर भी मैं ना मानूं तो मुझे छेड़ छेड़ कर अपने मादक गांधो से मेरे रोम रोम को सुगंधित कर जब तक मुझको हंसा नहीं देती थी तब तक अलग नहीं होती थी। धीरे-धीरे मैं उसके व्यवहार से इतना भीग गया कि उसके बिना एक पल भी नहीं रह पाता और यही हाल तो उधर उसका भी था।
         साधना विधि अगले पोस्ट में धन्यवाद......
       

तेलिया कन्द


तेलिया कंद भारत की दिव्य और दुर्लभ औषधियों में से एक है इसीलए इसका नाम 64 दिव्य औषधियों में सबसे पहले आता है।अभी तक इसके बारे में विवरण तो कई ग्रंथों में मिलता है पर प्रमाणिक रुप से जानकारी किसी को भी नहीं थी। एक प्रकार से इसे अप्राप्य पौधा मान लिया गया था। एक जाने-माने वैद्य वैद्य हरि शंकर जी ने घोषणा की थी कि जो मुझे तेलियाकंद का प्रमाणिक पौधा लाकर दिखा देगा उसे मैं ₹100000 का पुरस्कार दूंगा पर वे अपनी इच्छा मन में ही लिए दुनिया से विदा हो गए
  कैंसर जैसे असाध्य रोगों पर यह आश्चर्यजनक रूप से प्रभाव युक्त है। इसके प्रभाव का उल्लेख किया जाए तो एक पूरा ग्रंथ बन सकता है इसी के संबंध में हम इस पोस्ट के माध्यम से तेलिया कंद के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे
   इस कंद का महत्व इसी बात से लगाया जा सकता है कि वैद्य घनश्याम दास जी वैद्य हरि प्रकाश जी आदि ने अपना पूरा जीवन ही इस कंद की खोज में लगा दिया परंतु फिर भी उन्हें इस प्रकार का कंद देखने को नहीं मिला। हारकर उन्होंने अपने जीवन के उत्तरार्ध में कहा कि तेलिया कंद के बारे में लगभग सभी आयुर्वेद ग्रंथों में पढ़ने को मिलता है परंतु अब इसका अस्तित्व पृथ्वी पर नहीं है, हो सकता है कि किसी समय मे यह कंद पृथ्वी पर रहा हो परंतु जिस प्रकार से कई दुर्लभ पशु पक्षियों की जाती नष्ट हो गई उसी प्रकार से तेलिया कंद की जाती भी नष्ट हो गई और यह अब केवल पुस्तकों तक ही रह गई है।
   तब मैंने कई साधु संतों के संपर्क स्थापित किया और इसके बारे में उनसे पूछताछ की तो उन्होंने बताया इस कंद की उपयोगिता और स्वच्छता के बारे में परंतु यह उन्होंने भी स्वीकार किया किया यह कंद अभी तक हमें देखने को नहीं मिला है।
साधु-संतों भारत के प्रसिद्ध वैद्यो, प्रमाणिक आयुर्वेद ग्रंथों में इस कंद के बारे में जो जानकारी प्राप्त हुई है वह इस प्रकार है:- इसके पत्ते कनेर के पत्ते की तरह लंबे पतले और तिकोने होते हैं उन पत्तों के ऊपर काले तिल के समान छींटे पड़े रहते हैं इसका कंद बहुत बड़ा होता है।
   यह कांड हाथ की लंबाई जितना मोटा और चिकना होता है तथा छोटे-छोटे छोटी गांठे दिखाई देती है।
  सुप्रसिद्ध वनस्पति शास्त्री रूपलाल जी ने अपने मासिक पत्रिका ब्यूटी दर्पण सन 1926 के अंक में लिखा है, कि यह पौधा अत्यंत दुर्लभ और महत्वपूर्ण है, इसके पत्ते चिकने होते हैं और दूर से यह सूरन के पत्तों की तरह दिखाई देता है। इन पत्तों के ऊपर काले तिल के सामान छिटे नहीं होते, परंतु तने के ऊपर ऐसे छींटे अवश्य होते हैं। उन्होंने इस पत्रिका में तेलिया कंद का चित्र में छपा था और लिखा था कि मुझे तेलिया कंद की एक पौधा भैयालाल पांडे से मिला है परंतु बाद में वनस्पति विशेषज्ञों के द्वारा जांच करने पर आरणी पौधा निकला।
        अनुभूत योग माला के सन 1934 के अक्टूबर माह अंक में इस कंद का परिचय देते हुए लिखा है कि यह कंद हिमालय और मध्य भारत में मिलता है तथा ऐसा कंद अत्यंत दुर्लभ पहाड़ी स्थानों पर पाया जाता है जहां मनुष्य की पहुंच बहुत कठिनता से होती है।
     सन 1967 में जापान के 5 सदस्यों का दल लगभग 4 महीने पूरी हिमालय में घूमता रहा उनका उद्देश्य केवल तेलिया कंद का पता लगाना था परंतु इसमें वे भी सफल नहीं हो सके। हार कर उन्होंने अपनी टिप्पणी दें कि यह कंद इस समय समाप्त नहीं हुआ है तो दुर्लभ अवश्य है।
    इन सारे तथ्यों से पता चलता है कि इस कंद के बारे में खोज पिछले 100 वर्षों से हो रही है और लोगों ने अपना पूरा जीवन इसकी खोज में ही लगा दिया है परंतु अपने उद्देश्य में सफलता प्राप्त नहीं कर सके हैं। इससे इस महत्वपूर्ण कंद के महत्व की महिमा को जाना जा सकता है।
गुण दोष----
       इसमें कोई दो राय नहीं है कि प्राचीन काल में यह कंद भारत भूमि पर अवश्य था और हमारे ऋषि मुनि और आयुर्वेद के ज्ञाता इस कंद का उपयोग करते थे, उन्होंने इसके बारे में सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग किया है कुछ महत्वपूर्ण तथ्य इस प्रकार हैं
यह एक चमत्कारिक वनस्पति है और उसके दर्शन ही महत्वपूर्ण है "चरक संहिता टीका"
तेलिया कंद दिव्य कंद है और इसके रस से पारे की गोली सुगमता से बांधी जा सकती है "काव्य संहिता "
 तेलिया कंद अत्यंत महत्वपूर्ण औषधि है इस के रस को पारे में मिलाने से पारा तुरंत ठोस होकर गोली का आकार धारण कर लेता है और इस गोली के सहयोग से तांबा और चांदी तुरंत सोने में बदल जाती है "श्रुति विज्ञान"
तेलिया कंद का रस अत्यंत महत्वपूर्ण है इसे शीशी में भरकर उसमें पारे को शहद में घोटकर मिला दिया जाए तो 4 घंटे में पारा सिद्ध सूत में परिवर्तित हो जाता है यह सिद्ध सूत तांबे को सोने में एक ही क्षण में परिवर्तित कर देता है  "डॉक्टर प्राणेकर"
यदि तेलिया कंद के रस में भिगोया हुआ पारा जहर खाए व्यक्ति की हथेली पर रख दिया जाए तो यह सारा शरीर के पूरे शहर को चूस लेता है और व्यक्ति बन जाता है "पंडित पक्षधर झा"
यदि तेलिया कंद का छोटा सा तने का टुकड़ा पानी में रखकर यदि उस पानी से स्नान की जाए तो शरीर के किसी भी प्रकार का चर्म रोग मात्र 2 दिन में समाप्त हो जाता है "आयुर्वेद रत्न"
तेलिया कंद को यदि पुत्रदा कंद कहा जाए तो ज्यादा उपयुक्त रहता है यदि इसके कंद को पानी में घिसकर बांझ स्त्री रजस्वला समय में केवल 3 दिन ही ले ले तो निश्चय ही उसे पुत्र रत्न प्राप्त होता है इस कंद की सबसे बड़ी विशेषता ही यही है आदि आदि।
    कुल मिलाकर इन सारे ग्रंथों को पढ़ने से यह तो स्पष्ट हुआ कि यह कंद अत्यंत ही महत्वपूर्ण और दुर्लभ है। यदि इसे आयुर्वेद की 64 दिव्य औषधियो में सर्व प्रमुख स्थान मिला है तो निश्चय ही यह अत्यंत महत्वपूर्ण होनी चाहिए ।
    मेरे पास एक प्राचीन हस्तलिखित पुस्तक थी उसमें भी तेलिया कंद के बारे में कुछ विवरण मिलता था। यह पुस्तक हमारे परिवार में कई पीढ़ियों से सुरक्षित चली आ रही थी, उस पुस्तक में लिखा था कि तेलिया कंद का रस तांबे को सोने में तुरंत परिवर्तित कर देता है मेरे पिताजी ने भी जो कि प्रसिद्ध वैद्य थे कहा था कि हम लोगों के ऐसे सौभाग्य कहां कि हम इस कंद के दर्शन कर सके। इससे भी मेरे मन में यह प्रबल इच्छा जागृत हुई कि यदि इस पृथ्वी पर कंद है तो उसका पता अवश्य लगाया जाए। मेरे मन में भी यह दबी हुई एक साथी की यदि मैंने तेलियाकंद का पता लगा लिया तो यह आयुर्वेद की बहुत बड़ी सेवा होगी और मेरा नाम आयुर्वेद समाज में हमेशा हमेशा के लिए अमर हो जाएगा
    परंतु मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था कि मैं इसके लिए शुरुआत करूं तो कहां से करूं मेरा पिछला अनुभव यह है, कि इसके बारे में अगर किसी वैद्य से भी अब आगे और जानकारी नहीं मिल सकेगी। जितना भी साधु सन्यासी और लोगों से मिला था उन सब ने नहीं बताया था कि उन्हें स्कंध के बारे में मालूम नहीं पढ़ सका यदि आप इसके बारे में बहुत सुना है। इस संबंध में मैं कई साधु और सन्यासियों से मिला उन्होंने बताया कि यह कंद आबू, गिरनार, विंध्याचल, हिमालय आदि पहाड़ों पर मिल सकता है मैंने गिरनार का चप्पा चप्पा छान मारा परंतु मुझे इस कांद के बारे में मालूम नहीं पड़ सका। अब मैं प्रमाणित रूप से कह सकता हूं कि भले ही प्राचीन समय में आबू और गिरिनार के पहाड़ों में तेलिया कंद का पौधा रहा होगा परंतु अब इन पहाड़ों में अब यह दुर्लभ पौधा प्राप्त नहीं है।
इसी बीच मुझे देहरादून की आगे मसूरी की पहाड़ियों में घूमने का अवसर मिला तो वहां मैंने सुना कि कोई सीताराम स्वामी है जिनको तेलिया कंद के बारे में पूरी जानकारी है
   मैंने इससे पहले भी सीताराम स्वामी के बारे में सुन रखा था कि वे आयु से वृद्ध है परंतु उनके पास है जड़ी बूटी और आयुर्वेद के विशेष नुस्खे हैं जो कि अन्य किसी ग्रंथ में प्राप्त नहीं होते। यह भी सुना था कि वह एक श्रेष्ठ आयुर्वेद रसायनिज्ञ हैं।यदि कोई मृत्यु के निकट पहुंचा हुआ व्यक्ति भी उनके आंगन तक पहुंच जाता है तो फिर वह मर नहीं सकता क्योंकि उन्हें सैकड़ों हजारों अचूक नुक्से ज्ञात है।
    मैं फिर प्रयत्न करके उनके घर तक पहुंचा परंतु, मेरा दुर्भाग्य कि वहां जाने पर मुझे पता चला कि 4 महीने पूर्व ही उनका देहांत हो चुका है। मृत्यु के समय उनकी आयु 105 वर्ष थी और अंतिम समय तक भी उनका सारा शरीर स्वस्थ व क्रियाशीलता तथा वे नित्य तीन चार मील की पैदल यात्रा कर लेते थे।
  परंतु मुझे वहां एक महत्वपूर्ण जानकारियां मिली कि काफी वर्ष पूर्व जोधपुर के श्रीमाली जी इनके पास कुछ महीने रहकर इन का विश्वास प्राप्त कर सके थे और इनसे आयुर्वेद के सारे नुस्खे प्राप्त किए थे इसके बदले में श्रीमाली जी ने इनको सम्मोहन प्रयोग व वशीकरण प्रयोग सिखलाया था,और बदले में सीताराम जी ने अपने पास जितने भी नुस्खे थे वह सब प्रमाणिक रुप से बता दिए थे साथ ही साथ अपने सामने उसको आजमा कर या प्रयोग करके भी बता दिया था तथा तेलिया कंद के बारे में मैं भी इनसे प्रामाणिक जानकारी श्रीमाली जी को मिली थी।
   श्रीमाली जी का नाम ज्योतिष और तंत्र-मंत्र के क्षेत्र में काफी सुन रखा था इसलिए उनके बारे में कोई भी बात छुपी हुई नहीं थी मैं वहां से बिना विलंब किए सीधा जोधपुर जा पहुंचा।

सिद्धाश्रम-3


अब आगे सघन आश्रम शुरू हो गया था, चारों तरफ खुला खुला वातावरण प्रकृति के बीचो-बीच यह यह स्थान अपने आप में चेतनायुक्त दिव्य अनुभव हो रहा था, यहां पर विचरण करते हुए कई अति विशिष्ट योगी और साधु दिखाई दिए, जिनमें रसायनिज्ञ नागार्जुन भी थे। मैंने देखा कि अधिकतर योगी और सन्यासी पूज्य गुरुदेव से परिचित थे और लगभग वे सभी देखते ही अवाक हो जाते हैं और फिर तुरंत भूमि पर लेट कर दंडवत प्रणाम करने लगते।
                    थोड़ा सा आगे बढ़ने पर फूलों से अच्छादित एक कुटिया के पास रुक कर बाहर बड़े एक तेजस्वी साधु को मेरी तरफ संकेत कर कहा यह तेरे पास रहेगा ,फिर मुझे संबोधित करते हुए गुरुदेव ने कहा कि मैं जा रहा हूं अब तू दो-तीन दिन इनके साथ ही रहेगा, फिर उस साधु को संबोधित करते हुए कहा यह पहली बार ही सिद्धाश्रम में आया है, इसे स्नान कराकर विरुपाक्ष साधना सिखाओ और यदि इसके मन में घूमने की इच्छा हो तो तुम बराबर इसका मार्गदर्शन करते रहना।
                वह साधु गुरुदेव की आज्ञा पाकर धन्य हो गया और चरणों में लिपटकर खिल उठा ,गुरुदेव आगे बढ़ गए और मैं उस सन्यासी के पास रुक गया, बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि सन्यासी का नाम पूर्णानंद स्वामी है उसकी आयु लगभग 250 वर्ष है परंतु मुझे वे 40 वर्ष से ज्यादा आयु के अनुभव नहीं हो रहे थे।
              उनके साथ मैं कुटिया के अंदर गया तो मैं अंदर का दृश्य देखकर आश्चर्यचकित रह गया। कुटिया में सारी सुख-सुविधाएं पहले से ही थी जो मनुष्य के लिए आवश्यक होती है। ऐसा लग रहा था जैसे वह मात्र कुटिया ही नहीं अपितु देव लोक का संक्षिप्त संस्करण हो।
                         मुझे पूर्णानंद ने बताया कि तुम्हें चलकर सिद्ध योगा झील में स्नान कर लेना चाहिए, जिससे कि तुम्हारा कायाकल्प हो सके। मैं उनके साथ झील की तरफ बढ़ गया ,झील के किनारे किनारे सैकड़ों संगमरमर के समान पारदर्शी स्फटिक पत्थर पड़े थे जिनमें से प्रकाश निकल रहा था मैं मृगचर्म पहनकर झील में उतर पड़ा। 
                    मैंने जी भर कर स्नान किया पर स्नान करते ही मुझे ऐसा लगा जैसे अंदर का सारा जीर्णता घुल गया हो। काम क्रोध लोभ मोह आदि वृतियां तिरोहित हो गई, मन में एक विशेष उमंग और उत्साह का लावा सा फूट पड़ा। हृदय में एक ही चिंतन रहा है कि मुझे यहां साधनात्मक दृष्टि से उच्चतम स्थिति प्राप्त करना है।
          मैं जब बाहर निकला और अपने शरीर को पूछा तो मेरे सारे वाह्य रोग समाप्त से हो गए, मैं कई वर्षों से गठिया रोग से पीड़ित था और बराबर घुटने में दर्द अनुभव कर रहा था परंतु स्नान करने के बाद आज तक ना तो गठिया रोग ने तकलीफ दी और ना अन्य किसी प्रकार का रोग मुझे अनुभव हुआ। मैंने शरीर पोछकर उस किनारे पड़े कांच की तरह स्फटिक पत्थर में झांका तो ऐसा लगा जैसे मेरा चेहरा अत्याधिक सुंदर ,आकर्षक और तेजस्वी हो उठा है। मेरे हाथों पैरों की झुरिया समाप्त सी हो गई और सबसे बड़ी आश्चर्य की बात तो यह थी कि मेरे शरीर में जो चर्बी की ज्यादा मात्रा थी वह स्वतः ही दूर होकर मेरा पूरा शरीर संतुलित और आकर्षक हो उठा।
                    मुझे पूर्णानंद स्वामी ने नए वस्त्र धारण करने के लिए दिए,उन वस्त्रों को पहनने के बाद मैं अपने आपको अत्यंत तरोताजा और स्वस्थ अनुभव कर रहा था। मैं जब पूर्णानंद स्वामी के साथ आया था तब उनके हाथों किसी प्रकार का कोई वस्त्र नहीं थे फिर यह अचानक हुआ वस्त्र उनके पास कहां से आ गए? यह मेरे लिए सामान्य कोतूहल की बात थी, मेरे पूछने पर स्वामी जी ने बताया कि यहां पर जिस वस्तु की कामना की जाती है प्रकृति सोता है, प्रकृति उस वस्तु की पूर्ति तत्क्षण कर देती है। परीक्षा के लिए मैंने एक क्षण के लिए मन में सोचा कि मैं कैसा साधू हूं कि मेरे हाथ में तो एक कमंडल भी नहीं है, उसी क्षण आश्चर्य से मैंने देखा कि मेरे दाहिने हाथ में स्वतः ही कमंडलु आ गया। मैं प्रकृति पूरित  इस व्यवस्था धन्य हो उठा।
         सन्यासी मित्र के साथ मैं उस उद्धान मे कुछ क्षणों के लिए जा बैठा जहां मृग शावक विचरण कर रहे थे ।सारा उद्यान सुगंधित पुष्पों से अच्छादित था दो तीन हिरण मेरे पास आकर मोहित से खड़ी हो गए जैसे वह मुझे कई वर्षों से जान रहे हो। एक छोटे से मृग शावक को मैंने गोदी में उठा लिया, वहां पर कई सन्यासी सन्यासीनिया सबैठी हुई परस्पर मनोविनोद में व्यस्त थी। मुझ जैसे आगंतुक को देखकर 8-10 सन्यासनिया पास आकर खड़ी हो गई और जब उन्हें पूर्णानंद स्वामी से पता चला कि मैं आज ही आया हूं और स्वामी निखिलेश्वरानंद जी का शिष्य हूं तो मैंने देखा कि गुरुदेव का नाम लेते हैं उनकी आंखें श्रद्धा से झुक गई और मेरे भाग्य पर ईर्ष्या करने लगी कि मैं उनका शिष्य हूं एक ने तो कहा कि वास्तव में ही आप कोई बहुत बड़े पुण्य किए होंगे तभी महायोगी का शिष्य प्राप्त कर सके हैं हम तो उनसे बातचीत करने को ही तरस रहे हैं, पर अब आप आ गए हैं तो शायद आपके द्वारा वहां तक पहुंच सके।
               मैं अपने गुरु के सम्मान और उनके प्रति लोगों की श्रद्धा देखकर गदगद हो उठा, वहां से मैं कल्पवृक्ष की तरफ बड़ा और कुछ क्षणों के लिए कल्प वृक्ष के नीचे ध्यान मस्त होकर बैठ गया। एक क्षण में मेरा ध्यान लग गया और अपने श्वास को सहस्त्रधारा में स्थित कर लिया। उस क्षण मुझे जो दृश्य और अनुभूति हुई वह शब्दों से परे हैं। कुछ समय बाद मैं चैतन्य होकर उठा और मेरे आदि ऋषि भारद्वाज के चरणों में साष्टांग दंडवत किया, निर्विकार ध्यान मग्न थे कभी-कभी कुछ क्षणों के लिए उनकी आंखें की ऊपर की पलक हिल जाती थी जिस से ज्ञात होता है कि वह पूरी ध्यान अवस्था में है
    3 दिन कैसे बीत गया कुछ पता ही नहीं चला प्रातः काल भगवान सूर्य बर्फीले कैलाश पर्वत के पीछे से निकलते हुए से प्रतीत होते थे कि मानो वे स्वयं आश्रम में आने के लिए व्याकुल हो। दिन आश्रम में घूमने में ही बीत जाता एक अलौकिक दृष्टिगोचर होती जो भी देखता वह अपने आप में अन्यतम होता है, एक एक दृश्य एक एक प्रकृति के रूप अत्यंत सम्मोहक और शब्दों से परे है ऐसा लग रहा था जैसे वहां प्रकृति ने शत-शत रूपों में अपना श्रृंगार किया है। मैं एक दिन सिद्ध प्रपात की ओर भी गया जहां पानी 300 फीट ऊपर से गिरता है कोई साधक साधिका है वहां विचरण करते हुए दिखाई दिए। रात तो वहां को अत्यधिक सम्मोहक और जादू भरी होती है कहीं पर सन्यासी अपने अनुभवों को सुना रहे हैं, तो कहीं शांत चित्त होकर ध्यानस्थ है, कहीं पर उच्च कोटि के जोगी प्रवचन कर रहे हैं और सैकड़ों की संख्या में ऋषि उनके सामने बैठे हुए उनकी आवाज की अमृत पान कर रहे हैं, चारों तरफ एक विचित्र उमंग का सैलाब मैंने अनुभव किया। 
           इन दिनो में पूज्य गुरुदेव से एक बार भी दर्शन नहीं हुए मैंने अपने सहचर पूर्णानंद स्वामी से पूछा तो उन्होंने कहा संभवता परम गुरु के पास गए हो पर हमें उधर बिना आज्ञा जाने का निषेध है।
       चौथ के दिन प्रातः काल में स्नान करके तैयार हुआ ही था कि पूज्य गुरुदेव दिखाई दिए ऐसा लगा जैसे कि मैं कई वर्षों से अपने गुरु से बिछड़ गया हूं और आज पुनः उनसे मिला हूं दौड़कर मै उनके चरणों से लिपट गया उन्होंने मेरे कायाकल्प को देखकर प्रसन्नता व्यक्त किया और कहा चलो वापस चलते हैं। यह शब्द मेरे लिए हथौड़े की तरह थी और मैं एक बारगी सन्न रह गया, मेरी रति मात्र भी इच्छा वापस चलने की नहीं हो रही थी, इसने नैसर्गिक स्थान पर न मन में किसी प्रकार का न अभाव होता और ना ही चिंता, दुख परेशानी ही। अब मुझे वापस उस संसार रूपी घोर नरक में फिर जाना होगा वहां पग पग पर झूठे छल,धोखा कपट व्यभिचार और घृणा है जहां आदमी नकली है और चेहरे पर एक कृत्रिम मुस्कुराहट से चढ़ाए हुए एक दूसरे को काटने की फिराक में हैं।
       पर मैं विवश था मैंने गुरुदेव से नम्र निवेदन भी किया और उन्होंने एक ही शब्द में मेरी आशाएं ध्वस्त कर दी की साधना और तपस्या का मूल उद्देश्य तो संतप्त और दग्ध लोगों का मार्गदर्शन करता है, उनके आंसू पोछना है, इनके लिए स्वयं को तेरी तिल जलाकर और सभी प्रकार के घात प्रतिघात को झेलना आवश्यक है, और पूर्णानंद स्वामी के सिर पर हाथ फेर कर गुरुदेव आगे बढ़ गए वह तो इतने से ही धन्य हो गए और प्रसन्नता के अतिरेक मे उनकी आंखों में आंसू छलक आए।
       विचरण करते हुए चल सन्यासी सन्यासी न्यूज़ सुना कि स्वामी जी पुनः जा रहे हैं तो वे दर्शन करने के लिए दौड़ दौड़ कर रास्ते के दोनों ओर खड़े हो गए और ज्यो ही वे स्वामी जी के  दर्शन करते अपने आप को हृदय कृत्य कृत्य अनुभव करते।
      इस बार गुरुदेव दूसरे रास्ते से चलकर सिद्धाश्रम से बाहर आए और फिर वहां से मुझे लेकर बद्रीनाथ पहुंचे वहां से बस द्वारा हम ऋषिकेश आये। ऋषिकेश में उन्होंने मुझे छोड़ते हुए कहा कि तुमने थोड़ी समय में साधना करके जो स्थिति प्राप्त की है उसको बराबर अक्षुण्य बनाए रखना। सधनात्मक अनुभवों को यथासंभव अपने तक ही सीमित रखो और कोई ऐसा कार्य मत करो जो सामाजिक नैतिक नियमों के विपरीत हो।
   यहां से गुरुदेव किसी अन्य स्थान पर एक-दो दिन के लिए जाने वाले थे, मुझे अपने घर चले जाने की आज्ञा प्राप्त हुई, पर अब मेरा मन घर जाने को नहीं हो रहा था मैं आंसू प्रति नेत्रों से सन्यास धारण करने की इच्छा प्रकट की तो उन्होंने स्वीकृति दे दी।
मैं घर लौटा और पुनः अपने कामकाज में लग गया परंतु एक क्षण के लिए भी मैं उस अलौकिक स्वर्ग को भुला नहीं पाया ,इसके बाद मेरे शरीर में ना तो कोई  व्याधि रही  और ना ही आज तक कोई बीमारी। मेरे  निखरे हुए यौवनमय स्वरूप को देखकर आज भी लोग आश्चर्य कर कर रहे हैं । यह सब उन महर्षियों की कृपा है जिनकी वजह से यह गूढ़ ज्ञान जीवित रह सका सबसे ज्यादा कृपा तो अपने गुरुदेव के प्रति है जिनकी कृपा से मैं अपने जीवन को जितना भी हो सका साधनामय बना सका हूं मेरा रोम रोम उनके प्रति कृतज्ञ है।

सिद्धाश्रम-2

रास्ते के दाहिने और मिलो लंबा भाग दिखाई दे रहा था, जो हजारों तरह के फूलों से खिला हुआ प्रतीत हो रहा था। उन फूलों की मिनी मस्त और मधुर सुगंध तन मन को भिगो रही थी, दूर पहाड़ों की घटिया दिखाई दे रहे थे जो बर्फ से पूर्णता: अच्छादित थी। मैंने इस प्रकार के खिले हुए पुष्प पहली बार देखे, हजारों तरह के गुलाबी और विविध पुष्पों को एक साथ में देख रहा था यद्यपि मुझे बद्रीनाथ के रास्ते में फूलों की घाटी देखने का अवसर मिला है, पर वह इस वनश्री का करोड़ोंवा हिस्सा भी नहीं हो सकता है। एक तरफ मिलो लंबी फैली हुई शांत झील जिस पर विशिष्ट राजहंस उन्मुक्त विचरण कर रहे थे कई सन्यासी और सन्यासिनिया अपनी गोदी में राजहंसो को लेकर दुलार रही थी और दूसरी तरफ मिलो फैला हुआ पुष्पों का अखंड साम्राज्य ऐसा दृश्य वास्तव में ही अपने आप में अनिवर्चनीय है हम तो स्वर्ग की कल्पना ही करते हैं पर इसे दृश्य के आगे तो स्वर्ग भी भावना नजर आ रहा था।
     अभी तक किसी झील के किनारे किनारे ही आगे बढ़ रहे थे, कुछ दूर चलने पर दाहिने और फूलों के बीच साधकों की कुटिया दिखाई देने लगी, कई स्थानों पर साधक और सन्यासी ध्यान लगाए दृष्टिगोचर हो रहे थे। कुछ आगे चलने पर बाईं तरफ झील के किनारे किनारे स्फटिक की सिलाईओं पर बैठे हुए ध्यानस्त सन्यासी दिखाई देने लगे, ऐसा लगता था जैसे साक्षात देवता हैं वहां ध्यानस्थ हो शांत,सुरम्य,एकांत वातावरण सामने झील का लहराता हुआ जल किनारे पर भव्य पारदर्शी स्फटिक शिला है और उन पर बैठे हुए सन्यासी...... एक ऐसे वातावरण की सृष्टि कर रहे थे जो अपने आप में दिव्य और अनुपम है।
          इसके अलावा कई सन्यासी इधर-उधर विचरण कर रहे थे, परंतु वहां किसी प्रकार की कोई हड़बड़ी नहीं, किसी प्रकार का कोई उतावलापन नहीं, ऐसा लग रहा था जैसे सब कुछ अदृश्य सत्ता के हाथों नियंत्रित हो।अधिकांश सन्यासी पूज्य गुरुदेव से परिचित प्रतीत हो रहे थे, क्योंकि ज्योंही गुरुदेव को देखते आश्चर्य से एकबारगी थम जाते और फिर अपना कमंडलु एक तरफ रख साष्टांग दंडवत करने लग जाते। झील के किनारे जब हम पहुंचे तो सैकड़ों सन्यासी सन्यासनियां  उन्हें देखकर आश्चर्य के साथ-साथ आत्मविभोर सी हो गई और अत्यंत शालीनता के साथ उन्हें प्रणाम कर स्वयं में ऐसा अनुभव करने लगी कि जैसे उन्होंने आज बहुत कुछ प्राप्त कर लिया हो। एक जगह स्फटिक शिला पर विश्राम के लिए कुछ झणों के लिए बैठे तो कई सन्यासी तट से उठकर स्फटिक शिला के चारों ओर शांत भाव से आकर बैठ गए सामने विस्तृत झील और स्फटिक शिला पर परम पूज्य गुरुदेव के चारों ओर उच्च कोटि के सन्यासी मात्र दर्शन कर अपने जीवन को पूर्णता देने का प्रयास कर रहे थे मैंने सहज बालपन वस एक हंस को अपनी गोदी में उठा लिया। वहां सभी पक्षी निर्भय निर्मुक्त है, उन्हें एहसास है, कि वे सुरक्षित है राजहंस का सुखद स्पर्श मेरे प्राणों को छू गया।
कुछ समय बाद गुरुदेव वहां से उठ कर खड़े हुए और मुझे संकेत कर आगे बढ़ गए, ज्यों-ज्यों हम आगे बढ़ रहे थे तेव तेव काफी सन्यासी दिखाई दे रहे थे, आश्रम की कुटिया सादगीपूर्ण और दिव्या आभा से ओत-प्रोत थी, सभी कुटियाए सहज स्वाभाविक प्रकृति निर्मित थी, जिनके बाहर तपस्वी ध्यानस्थ थे,और अपने जीवन की उन परमसत्ता से जुड़े हुए थे, जहां न किसी प्रकार का भय है, न चिंतन है, न किसी प्रकार का कष्ट है, न व्याधि है, न तनाव है, न परेशानी है। सभी के चेहरे तेज युक्त दिव्या आभा से ओत-प्रोत एक विशेष प्रकाश से युक्त दिखाई दे रहे थे जिसका दर्शन हो पाना अपने आप में गौरव युक्त था।
                       मेरे लिए यह शब्द अद्भुत, अलौकिक और आश्चर्यजनक था, मैं तो ऐसा अनुभव कर रहा था कि जैसे मैं मृत्यु लोक का सामान्य मानव स्वर्ग लोक में पहुंच गया हूं। सारा आश्रम इस प्रकार से व्यवस्थित और संचालित है कि कहीं कोई गड़बड़ या उतावलापन दिखाई नहीं दे रहा था
                   थोड़ा सा आगे बढ़ने पर हम बाएं रास्ते पर आगे बढ़ गए यह स्थान विशिष्ट क्षेत्र कहलाता था, जिसमें कुछ विशिष्ट साधनाए करने के बाद ही प्रवेश पाया जा सकता था। मैं अपने गुरुदेव के साथ आगे बढ़ रहा था एक तरफ झील के किनारे काफी वृक्ष सघन कुंज की तरह दिखाई दे रहे थे, जिन पर हजारों हजारों पुष्पा अपनी महक से पूरे वन प्रांतों को सुभाषित कर रहे थे। गुरुदेव ने बताया है यह लघु कल्पवृक्ष है, इसे न्यूनतम प्रयोग करो गाया गया है मूल कल्प वृक्ष आगे है थोड़ा सा ही आगे चलने पर मुझे मूल कल्पवृक्ष दिखाया जो अत्यंत घाना और छायादार था, उसके पत्ते त्रामवर्णि थे,जिसमें से हल्का प्रकाश क्षर रहा था, पूरा पेड़ गुलाबी पुष्पों से आच्छादित था।
               मुझे बताया गया कि वह मूल कल्प वृक्ष है जिसकी प्रशंसा तुम्हारे पुराणों और ग्रंथों में की गई है। कल्पवृक्ष के दाहिनी ओर अत्यंत भव्य स्फटिक शिला पर एक अत्यंत वृद्ध तेजस्वी ऋषि ध्यानास्थ थे। उनके चांदी के समान बाल चारों तरफ बिखर गए थे, उनके चेहरे पर एक विचित्र प्रकार की आभा और प्रकाश झर रहा था, जिसे देखते ही मन में उनके प्रति नमन होने की इच्छा हो रही थी। मैंने उन्हें प्रणाम किया गुरुदेव ने कहा कि ये भारद्वाज ऋषि हैं जिस गोत्र के तुम हो ।कई वर्षों से यह समाधि में है, अपने जीवन में पहली बार अपने गोत्र के आदी महामानव को देख कर मेरा हृदय गदगद हो गया। गुरुदेव आगे बढ़ चुके थे मैं भी पीछे पीछे आगे बढ़ गया।
             अब हम झील के उस भाग के निकट पहुंच चुके थे जो हजारों हजारों पुष्पों से अच्छादित था। इस प्रकार के बड़े बड़े पुष्प मैंने अपने जीवन में पहली बार देखे थे। ब्रह्मकमल का वहां बहुतायत थी। झील के किनारे स्थान पर बहुत लंबा-चौड़ा उधान सा बना हुआ था जीनेमें श्याम वर्णनीय हिरण निर्द्वंद निश्चिंत होकर घूम रहे थे यहां कई साधिकाएं उन्मुक्त भाव से बैठी हुई थी या परस्पर विनोद भाव से एक दूसरे के पीछे दौड़ते हुए दिखाई दे रही थी। वहां पर झील में कई नौकाय देखी, जो संभवतः स्फटिक शिलाओ से बनी हुई होंगी ,क्योंकि फाइबरग्लास की तरह यह नौकाय हल्की और सुंदर दिखाई दे रही थी। इन नौकाओं में सन्यासी और सन्यासनिया अपने ही हाथों से चप्पू लेकर झील में विचरण कर रहे थे। सारा दृश्य ऐसा लग रहा जैसे कि वही पर हमेशा हमेशा के लिए ठहर जाऊ। गौरवर्ण सुंदर और स्वस्थ आकर्षक सन्यासिनी भगवे वस्त्र लंबी जटाएं पैरों में खड़ाऊ और हाथों में मृग सावक, कुल मिलाकर कण्व के आश्रम की याद दिला रहे थे जहां शकुंतला इसी प्रकार से विचरण कर रही होंगी।
         थोड़ा सा आगे बढ़ाने पर हम दाहिनी ओर मुड़ गए बाई ओर एक स्थान पर देव आश्रम लिखा हुआ था संभवताः इस तरह देवताओं व देव कन्याओं का निवास होगा, दाहिनी ओर मुड़ने पर आगे कई सन्यासी ध्यानस्थ बैठे हुए थे। एक स्थान पर गुरु देव ने रुक कर स्वयं उन सन्यासियों को प्रणाम किया जो ध्यानस्थ थे, मेरे पूछने पर उन्होंने बताया कि यह महाभारत में वर्णित युधिष्ठिर, कृपाचार्य और भीष्म पितामह है।

सिद्धाश्रम


सिद्धाश्रम देवताओं का आश्रम कहा जाता है,कहा गया है "सिद्धाश्रम महत्त् दिव्यं देवानामपि दुर्लभं"अर्थात् सिद्धाश्रम अत्यंत उच्च कोटि का दिव्य आश्रम है जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है, मानव जाति के कल्याण हेतु यह एक ऐसा आध्यात्मिक केंद्र है जो समस्त ब्रह्मांड को अपने आध्यात्मिक ऊर्जा से नियंत्रित किए हुए हैं।
                                   पिछले हजारों वर्षों से कई-कई ग्रंथो में सिद्धाश्रम के बारे में विवरण पढ़ने को मिलता है, परंतु इसमें प्रवेश पाना और अपने जीवन को जरा मरण से मुक्ति दिलाना अहोभाग्य ही कहा जा सकता है, इस मानव देह को प्राप्त कर यदि लाख काम छोड़ कर के भी इस तरफ प्रयत्न करें और केवल सिद्धाश्रम को इस चर्म-चक्षुओ से देख भी ले तब भी ईस जीवन की सार्थकता हो सकती है।
   सिद्धाश्रम एक ऐसा दिव्या तपोभूमि है जहां 2000 वर्ष की आयु प्राप्त सन्यासी साधनारत है। वहां कल्पवृक्ष है जिसके नीचे बैठकर जो भी याचना की जाती है पूरी हो जाती है। वहां सिद्ध योगा झील है जिसमें एक बार स्नान करने से ही व्यक्ति का कायाकल्प हो जाता है।इसे चर्म चक्षुओ से देखा जाना संभव नहीं है, जिसकी कुंडलिनी सहस्त्रार खुला हो वही इसे देख सकता है और निश्चित साधनाएं संपन्न करने पर ही इसमें प्रवेश पाया जा सकता है। यहां पर पहुंचने के लिए गुरु की नितांत अनिवार्यता है। गुरु भी ऐसा जो सिद्धाश्रम आ जा चुका हो। इसके बाद भी सिद्धाश्रम की उच्च सत्ता चाहे तभी वह दोनों जा सकते हैं।वहां अपने योग साधना के माध्यम से ही साधक किसी भी इच्छा की पूर्ति कर सकता है संसार के किसी भी दृश्य को अपनी आंखों से देख सकता है।मृत्यु उसकी वह स्वार्थी होती है वह ऐसा दिन विधान है जहां मानव को पूर्ण शांति और अखंड आनंद की प्राप्ति होती है।
       कोई भी व्यक्ति नैतिक नियम के अनुसार साधना संपन्न कर अत्यधिक सरल और सामान्य रहते हुए पूर्व मुखी जीवन जीने का प्रयत्न करें तो अवश्य ही वह सिद्धाश्रम जा सकता है। इस प्रकार सामान्य जीवन जीने की कोई उपयोगिता ही नहीं है हम जीवन जीने के लिए बाध्य हैं क्योंकि यह सांसे ईश्वर की दी हुई दी जिसे हम ढो रहे है।जीवन की विशेषता तो यह है कि हम अपने प्रयत्नों से जीवन को उधर्वमुखी बनाकर उन आयामों को  छू सकें जिनका वर्णन हजारों वर्षों से होता आया है।
         अगर आप कायर और डरपोक हो तो लहरों के भय से समुद्र के किनारे ही जीवन भर बैठे रह जाओगे ऐसी स्थिति में तुम्हें कुछ गिने चुने घोंघे ही हाथ आ सकते हैं जो कि व्यर्थ है। अगर मोती पाना है तो समुद्र की गहरी खाई में उतरना पड़ेगा क्योंकि जीवन मैं अगर कुछ पाना है तो कुछ खोना भी पड़ेगा और तपस्या के उत्तम कोटी की साधनाएं और ऊर्ध्वमुखी जीवन प्राप्त करना असंभव नहीं है।
           हिमालय के मध्य में मानसरोवर और कैलाश पर्वत के बीच पूर्णता वर्फ से अच्छादित यह आश्रम अपने आप में अत्यंत भव्य और अद्वितीय है। यह एक ऐसा आश्रम है जो पद यात्रियों के द्वारा प्राप्त होना संभव नहीं है, जो साधनात्मक दृष्टि से शुद्ध धरातल पर अव्यवस्थित हो सकता है वहीं इसे पहचान पता है।मानसरोवर के पास से हम आगे बढ़ रहे थे तभी एक स्थल पर गुरुदेव रुक गए और भाव विभोर हो गए संभवतः​ उन्हें अपने जीवन के उन झणों का स्मरण हो आया होगा, जब वे वहीं कहीं साधनारत रहे होंगे।
       वे हिमालय के उस भाग से भलीभांति परिचित थे। वे आगे चल रहे थे और मैं बराबर उनके पीछे गतिशील था।साधनात्मक दृष्टि से मैंने अपने शरीर को इस रुप में बना लिया था जिससे कि मुझे सर्दी गर्मी भूख-प्यास का अनुभव ना हो।
    कुछ समय बाद ही मुझे एक बड़ा सा द्वार दिखाइ दिया जो बर्फ से आच्छादित होते हुए भी एक विशेष विद्युत ऊर्जा से चेतन युक्त था, जिसके बाहर कई सन्यासी सामान्यता विचरण कर रहे थे।जब हम उस द्वार के अंदर घुसे तो ऐसा लगा जैसे द्वार के बाहर तक तो फिर भी सर्दी का अनुभव होता है परंतु अंदर कदम रखते ही ठीक वैसा ही अनुभव हुआ जैसे की हम को एयर कंडीशन कमरे में आ गए हैं जहां ना तो किसी प्रकार की सर्दी का अनुभव हो रहा था और ना ही किसी प्रकार की कोई तीव्र हवा या प्राकृतिक प्रकोप हो ऐसा लग रहा था जैसे सर्वत्र शांति और अखंड ब्रह्मत्व का चिर निवास हो। एकबारगी ही मेरे सारे शरीर में अंत: चेतना और प्राण ऊर्जा प्रवाहमान हो गई जिससे सारा शरीर एक विशेष चेतना से आप्लावित सा हो गया।
      लगभग 1 मील तक चलने पर कोई भी सन्यासी या योगी दृष्टिगोचर नहीं हुए परंतु मैंने अनुभव किया की उस प्रकृति विहीन बर्फीले प्रदेश में जहां घास का एक तिनका भी नहीं रुकता वहां इस द्वार के भीतर आने पर दूर-दूर तक प्रकृति का साम्राज्य दिखाई देता है हरे-भरे नवीन प्रकार के पेड़ ,जो अत्यधिक ऊचेऔर छायादार थे, मैंने वहां पहली बार देखें।रास्ते के दोनो ओर इस प्रकार के पेड़ों के पार दोनों तरफ हजारों तरह के खिले हुए पुष्प उस भूखंड को इंद्र के नंदन कानन की संज्ञा दे रहे थे उन फूलों की मिली जुली गांध के कारण सारा शरीर मन और प्राण प्रफुल्लित हो उठे। एक बारगी ही सारा श्रम जाता रहा। जिधर भी मैं दृष्टि डालता उधर प्रकृति का एक विशिष्ट और अलौकिक दृश्य देखने को मिलता है ऐसा लगता है जैसे यहां प्रकृति ने आनंददायक​ चरणों में अपना हसत हसत श्रृंगार किया हो।
     लगभग 1 मील चलने पर हमें एक या दो  सन्यासी आते जाते दिखाई दिए, गौरवर्ण बलिष्ठ और आर्यों की तरह लंबा चौड़ा शरीर चेहरे पर एक विशेष प्रकार का ओज और कंधों पर लहराती हुई जटाएं उनके व्यक्तित्व को साकार कर रहे थे ।पूज्य गुरुदेव बिना रुके निरंतर गतिशील थे और मैं भी सारी प्रकृति को अपनी आंखों में समेटने की चेष्टा करता हुआ उनके पीछे चल रहा था।
यह आश्रम का मुख्य भाग प्रारंभ हो गया था, बाई तरफ एक विशाल हीर दिखाई दे रही थी जिसे सिद्ध योगा झील कहा जाता है।हम इस झील के बिल्कुल किनारे-किनारे चल रहे थे जहां तक दृष्टि जाती वहां तक नीले रंग का जल ही जल दृष्टिगोचर हो रहा था। झील के किनारे हजारों तरह के विशिष्ट पक्षी और राजहंस विचरण कर रहे थे, मैंने उच्च कोटि के राजहंस पहली यहां देखें। विभिन्न प्रकार के रंग बिरंगी चिड़िया और उन पक्षियों के कलरव से एक अजीब प्रकार का आनंददायक वातावरण बन रहा था जिसे शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है,कई सन्यासी और सन्यासनीया झील के किनारे किनारे बैठी हुई दिखाई दे रही थी जिनकी आंखों में आनंद का समुद्र लहरा रहा था।हमारी चलने की रफ्तार थोड़ी धीमी पड़ गई थी मन ऐसा हो रहा था कि जैसे मैं यह झील के किनारे ही रुक जाऊं।