अष्ट नागिनी तंत्र


यायावर जीवन का यही लाभ है। शुभ अवसर प्राप्त होते ही परम पूज्य गुरुदेव की अनुमति प्राप्त कर भ्रमण पर निकल पड़ता और इसी क्रम में उन महान सिद्धौ और जोगियों के साहचर्य का सौभाग्य भी मुझे मिल जाता जो भारत भूमि को अपने तप पुण्य और ज्ञान के प्रकाश से आलोकित करते हुए स्वयं को एकांत में छुपाए साधनारत हैं। घटना मेरे काशी प्रभास की है विगत 3 माह से काशी के गोपनीय सिद्ध स्थल पर निवास कर रहे कुछ उच्च कोटि की साधनाओं में रात होने के लिए कृतसंकल्प था। यह गुरुदेव जी की कृपा दृष्टि ही थी जो इस अपरिचित क्षेत्र में साधनारत होते हुए मुझे अभी तक किसी व्यवधान का सामना नहीं करना पड़ा था। नित्यप्रति प्रातः बेला में गंगा स्नान कर बाबा विश्वनाथ का दर्शन करना  और पंचगंगा घाट स्थित अपने निवास पर लौट कर कुछ समय ध्यान अवस्थित रहना मेरी दिनचर्या का अभिन्न अंग बन चुका था।
 सर्पों से घिरा हुआ भीमकाय अघोरी
        ग्रीष्म ऋतु का सूर्य अपनी पूर्ण प्रखरता किए हुए आकाश में चमक रहा था ब्रह्मा घाट के निकट तपती रेत अग्निकांड के समान जल रही थी, दूर-दूर तक किसी परिंदे का भी नामोनिशान नहीं था।दहकते पाषाण खंडों पर सावधानी से पॉवर रखता हुआ मैं गंतव्य घाट की ओर गतिशील हुआ ही था कि एक विचित्र सा दृश्य सामने आ पड़ा। उस अंगारवत रेत की शैया पर एक भीषण अघोरी काया सुख निंद्रा में तल्लीन थी। वैसे तो इसके पूर्व भी मैं काशी में अनेक हट योगियों की विचित्र क्रियाओं का साक्षी बहुत रह चुका था, पर यह अघोरी कुछ अनोखा ही प्रतीत हुआ इसलिए कि यह अकेला नहीं था, बल्कि उसके चतुर्दिक कुछ विषैले नाग बिखरे हुए थे जो अपने फन उठाकर कदाचित सूर्य के प्रचंड किरणों को अवरुद्ध कर रहे थे।
    क्षणभर को एक सिहरन मेरे शरीर में व्याप्त हुई पर शीघ्र ही स्वयं को संयमित घर मै पंचगंगा घाट की ओर बढ़ चला। तैलंग स्वामी के मठ में पहुंचने के बाद भी वह दृश्य बारंबार मेरे मानस को उद्देलित करता ही रहा और अंततः गहन निशा में पुनः उसी स्थान पर जाने को मेरा मन मचल उठा जैसे कोई अदृश्य शक्ति बारंबार मुझे खींच रही हो और दबे पांव आश्रम से बाहर निकालकर मैं त्वरित गति से गंगा की ओर बढ़ चला।
      काशी के प्रसिद्ध है शमशान मणिकर्णिका घाट से गुजरते हुए कई अघोरियों से सामना हुआ जगह-जगह जिताएं जल रही थी। चड़़ चड़ की आवाज के साथ मृत मानव-देह के अवशेष अग्नि में तिरोहित होकर वातावरण को अजीब गंध से भर रहे थे। शुद्र मानव-देह कि निस्सारता का बोध कराते हुए कई अघोरी श्मशान साधना में लीन थे, तो कुछ श्मशान जागरण प्रयोग कर रहे थे पर इन सब से बेखबर मै ब्रम्हा घाट पर उसी अघोरी की झलक देखने को व्याकुल हो रहा था।
   अपने अनुमानित स्थल पर उस भीमकाय अघोरी की ज्यों का त्यों पड़ा देखकर मेरी आंखें प्रसन्नता से चमक उठी, उसके अलमस्त मुद्रा उसकी संपूर्ण स्पृह अवस्था का सूचक लग रही थी पर इससे पूर्व कि मैं उसके सन्निकट पहुंचू एक विशालकाय नागराज ने मेरा मार्ग अवरुद्ध कर दिया, उसकी भयानक फुफकार से चौककर मैंने सिर उठाया,कि उसके मस्तक पर सुशोभित दिव्य मणि पर मेरी मेरी दृष्टि स्थिर हो गई।जीवन में पहली बार किसी मणिधारी सर्प के दर्शन मुझे हुए थे और मैं मन ही मन गुरु मंत्र स्मरण करता हुआ, उस यमदूत के समक्ष अविचलित भाव से खड़ा था।
  निरुपाय और पराजित सा वह नागराज पीछे की ओर लौट पड़ा और इसके साथ ही अघोरी की स्नेहासिक वाणी मेरे कानों में ध्वनित हुई।आखिर तुम आ ही गए, तुम्हारी प्रतीक्षा में ही मैं यहां पर लेटा था कुछ अचंभित सा होकर मैं पास पहुंचा और गुरुदेव के सन्यासी शिष्य के रूप में उसे अपना परिचय दिया ही था कि प्रसन्नता के अतिरिक्त में वह अघोरी उठकर बैठ गया और मुझे अपना अंक में भीच लिया। करुणा पूरित हस्त मेरे सिर पर फेरता हुआ वह मेरे भाग्य की सराहना करता रहा और मेरे काशी निवास का प्रयोजन पूछा।
           मणियों के प्रकाश से झिलमिलाते उस रेत पर हमने संपूर्ण रात्रि व्यतीत कर दी। शिशुओं की किलकारी भरते हुए वह अघोरी अपने वाममार्गी पंथ की अनेक रोचक घटनाएं मुझे सुनाता जा रहा था बिना इस ओर ध्यान दिये कि मैं उसके संस्मरण की अपेक्षा उसके विचित्र मणिधारी सर्प की क्रीड़ाए देखने में तन्मय था। इतना तो मेरे मानस में स्पष्ट था कि वह साधारण सर्प नहीं थे वरन अलौकिक जगत से संबंधित प्राणी विशेष थे जिन्हें यह अघोरी अपनी साधना के बल पर वशीभूत किए हुए था।
        अरुणोदय की प्रथम किरण धरती पर अवतरित होते ही सभी नाग सहरसा अदृश्य हो गए, तभी वह अघोरी उठ खड़ा हुआ और विनम्र भावों में निवेदन करते हुए कहा निश्चय ही मैं पुणात्मा हूं जो आपका दर्शन पा सका। मेरे जीवन की सबसे बड़ी आकांक्षा ही यही है कि मात्र एक पल के लिए ही सही परमहंस स्वामी निखिलेश्वरानंद जी के चरणो में बैठ सकूं। मेरी इच्छा तो ना जाने किस जन्म में पूर्ण होगी पर यह मेरा परम सौभाग्य होगा यदि आप कुछ समय के लिए मेरे आतिथ्य स्वीकार करें। मेरी कुटिया गंगा के दूसरे तट पर ही है आशा है आप मेरा आग्रह अस्वीकार ना करेंगे।
                गंगा पार करने के लिए नौका की आवश्यकता थी। अघोरी ने किसी मांझी की तलाश में नजर दौड़ाई पर किसी को दृष्टिगोचर ना होते देखा हुआ निराश सा हो गया। उसकी परेशानी देखकर मैंने होठों पर हल्के मुस्कुराहट दौड़ाई और मैंने उसका हाथ अपने हाथ में लेकर आश्वस्त करते हुए कहा नौका की आवश्यकता नहीं और इतनी सुबह किसी मल्लाह का इस निर्जन तट पर मिलना भी संभव नहीं। गुरुदेव की असीम कृपा से मैंने जल गमन प्रक्रिया सिद्ध कर रखी है। तुम मात्र मेरा हाथ पकड़े रहना।
             गंगा पार एक सुरम्य स्थान पर अघोरी की कुटिया थी जिसमें एक आसन व कुछ तांत्रिक वस्तुएं के अतिरिक्त कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। प्रेम पूर्वक मुझे आसन पर बैठा कर उसने मुझे कुछ खाने का आग्रह किया। उस निर्जन स्थान पर कुछ खाद्य सामग्री उपलब्ध होने की आशा करना ही व्यर्थ था।मैंने हंसकर टालना चाहा, पर जब उसका आग्रह बढ़ता ही गया तो मजाक करते हुए मैंने कहा यदि तुम मेरा स्वागत करना ही चाहते हो तो मुझे छप्पन भोग मंगा कर खिलाओ। मेरी फरमाइश सुनकर वह अघोरी अत्यंत प्रसन्न हुआ और कुछ अस्फुट मंत्रोच्चारण करने लगा।
        रूपसी नाग कन्या से साक्षात्कार:-
दूसरे हे झण एक अप्रतिम षोडशी चांदी की थाल लिए मेरे समक्ष उपस्थित हो गई। उसके कंचनवत् शरीर से अपूर्व सुगंध प्रभावित हो रही थी। मैंने स्वयं को संयमित रखने का प्रयत्न कर ही रहा था कि वह रूपसी थाल मेरे सामने रखकर अदृश्य हो गई। नजर उठाकर देखा तो वास्तव में ही 56 प्रकार के व्यंजन मेरे लिए मंगाए गए थे। वह अलौकिक भोज अत्यंत स्वादिष्ट व तृप्ति दायक था, पर उस पुरे समय अंतराल में मेरा ध्यान उस सौंदर्य की प्रतिमा पर ही लगा रहा। रह रह कर उस कन्या का सौंदर्य मेरी आंखो के सामने जादू सा चमक उठता था।भोजनोपरांत मैंने अघोरी से उस कन्या का परिचय जानना चाहा, तो वह शांति स्वर में बोला -"वह नागकन्या थी"
            - नाग कन्या!सुनते ही मैं उछल पड़ा।
               -हां! पर वह मेरी आज्ञाकारी सेविका है। साधना से मैंने उसे वशीभूत कर रखा है, उस लोक के अन्य सर्प भी मेरे अनुचर हीं हैं।
            अघोरी अत्यंत निश्चिंतता से अपने सुख ऐश्वर्य का बखान कर रहा था।
         - पर मैं तो अभी तक कपोल कल्पित ही मानता था। क्या अभी भी नाग जाती का अस्तित्व पृथ्वी पर विराजमान है?  मैं अपनी जिज्ञासा रोकने में असमर्थ था।
              अघोरी ने रहस्य उद्घाटन करते हुए बताया- हमारे पुराणों में कई स्थानों पर नागों का वर्णन आया है। महाभारत काल में तो श्रेष्ठ पांडु पुत्र अर्जुन ने नागकन्या उलूपी से विवाह भी किया था। स्वयं भगवान श्री कृष्ण की रानियों में कई नागकन्या भी शामिल थी परंतु भारतीय पुराणों की विचित्र अदाओं को देखकर लोग इन्हें कपोलकल्पित मान लेते हैं अथवा उन्हें प्रतीक रूप में वर्णित किया हुआ समझ लेते हैं, जबकि यह सभी कथाएं शत-प्रतिशत प्रमाणित और विश्वसनीय है। इन सभी में नागों को भी मनुष्य की भाती ही निरूपित किया गया है, परंतु नाग जाति मानव से अधिक विलक्षण वह शक्ति संपन्न होती है तथा अपनी इच्छा अनुसार शरीर धारण कर लेने की क्षमता भी इनमें होता है। अतः साधना के बल पर इन्हें वशीभूत कर मनोवांछित कार्य संपन्न कराया जा सकता है।
     सृष्टि का एक नवीन रहस्य मेरे समक्ष अनावृत हो रहा था अत्यंत विनम्र निवेदन करते हुए मैंने जब अघोरी से नागो को वशीभूत करने की साधना का रहस्य जानना चाहा, तो उन्होंने कहा अष्ट नागनी तंत्र के माध्यम से नागिनीयो को अपने अनुकूल बनाया जा सकता है। यह 8 विलक्षण शक्ति संपन्न नागनीया है-अनंतमुखी, शंखिनी, वासुकीमुखी, तक्षकमुखी, कर्मोटकमुखी, कुलीरमुखी, पद्मिनी मुखी, महापद्म मुखी।
       नागिनियो की साधना मां बहन अथवा पत्नी रूप में की जा सकती है साधक जिस रूप में नागनियों का चिंतन करता है वह उसी रूप में साधक के साथ रहकर उसकी मनोकामना पूर्ति करती रहती हैं।

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