दिव्यांगना अप्सरा-2


मैंने मन ही मन उसे पाने का निश्चय कर लिया था क्योंकि उसके बगैर मेरा जीवन मुझे अधूरा सा लगता था, मैंने यह दृढ़ निश्चय कर लिया, कि जैसे भी संभव होगा मैं उसे अपने प्रयत्नों द्वारा प्राप्त करके ही रहूंगा।
                  यह सोच मैं पुनः उनके पास पहुंचा और उनसे हाथ जोड़कर विनती की- मुझे ऐसी विधि बताइए जिससे मैं उसे प्राप्त करने में समर्थ हो सकू, मैं जब पहली बार आपसे मिला था उसी दिन से मैंने मन-ही-मन आपको अपना गुरु स्वीकार कर लिया था।
      मैं उनके मना करने के बावजूद भी अपनी जिद्द पर अड़ा रहा और कई दिन- रात उनकी सेवा में,आज्ञा पालन में व्यतीत कर दिए।
       एक दिन उन्होंने मुझे अपने पास बुलाकर कहा-"मैं तुम्हारी सेवा से अत्यधिक प्रसन्न हुं और तुम्हें यह विशेष आशीर्वाद देता हूं कि तुम जो भी मुझसे मांगोगे तुम्हारी वह इच्छा अवश्य पूरी हो जाएगी।
     तब मैंने कहा-"मेरी तो पहली और आखिरी इच्छा ही यही है कि मैं दिव्यांगना को प्राप्त कर सकूं, और यही मेरे जीवन का ध्येय है"।
     तब उन्होंने "तथास्तु" कहते हुए मुझे उस श्रेष्ठ साधनों को संपन्न करने के लिए कहा जिसके माध्यम से उस दिव्यांगना अप्सरा को प्राप्त किया जा सकता है, और साथ में यह भी बताया कि दिव्यांगना को प्रेमिका रूप में आसानी से सिद्ध किया जा सकता है।
मैंने बड़ी मेहनत लगन और उमंग के साथ उस अद्वितीय साधना को उनके बताए अनुसार सिद्ध करे उसे प्रेमिका रूप में प्राप्त कर, व्यवहारिक और सामाजिक मर्यादा के अनुसार उससे विवाह कर लिया, विवाह के बाद ही मैं और दिव्यांगना दोनों ही उन सन्यासी बाबा का आशीर्वाद ग्रहण करने उनके आश्रम में पहुंचे और उन्हें श्रद्धा पूर्वक भक्ति भाव से प्रणाम कर आशीर्वाद ग्रहण किया।
      गुरुदेव ने प्रसन्नता के साथ अपने दाहिने हाथ के अंगूठे को उसके मस्तक पर रखा और दिव्यांगना को उसके वास्तविक स्वरूप का परिचय दिया इससे उसे वह स्मरण हो आया कि वह साधारण स्त्री नहीं अपितु दिव्यांगना अप्सरा है जो इस पृथ्वी लोक के प्राणी नहीं है वरन् इंद्र के सभा की श्रेष्ठतम अप्सराओं में से एक है और तभी उसे यह आभास भी हुआ कि यह जो मेरे सामने सन्यासी वेशभूषा में है वह और कोई नहीं,वैश्रब्य ऋषि के पिता ही हैं जिनके श्राप से मुझे मानवी रूप धारण कर इस पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ा, साथी ही साथ यह भी ज्ञात हुआ कि जो मेरे पति हैं वह और कोई नहीं स्वयं वैश्रव्य ऋषि ही हैं।
    यह दृश्य देखकर आश्चर्यचकित हो उनके चरणों से लिपट कर रोने लगी और अपने अपराधों की क्षमा मांगते हुए उनके करुणामयी नेत्रों​ की ओर याचन की दृष्टि से देखने लगी।
   सन्यासी ने गंभीर स्वर में कहा उठो और मेरी बात ध्यान से सुनो उन्होंने दिव्यांगना को बताया तुम्हारी मुक्ति इससे विवाह करके ही संभव थे क्योंकि वैश्रब्य ने जब से तुम्हारी एक झलक देखी थी उसी समय से इसका मन तुम्हारे प्रति आसक्त हो गया था और तुम्हें पा लेने की लालसा इसके मन में एक झीना सा आवरण लिए मचल उठी थी,  कारणजिस कारण इसकी तपस्या भंग हो गई और तुम्हारे प्रति इस प्रकार के चिंतन के आ जाने से यह उन गुहाया एवं श्रेष्ठ साधनाओं को संपन्न ना कर सका इसके मन में भी मानव रूप लेकर तुम्हें प्राप्त कर लेने की इच्छा प्रगट हो गई जिस कारण मजबूर हो मुझे इसको साधारण मानव बनकर तुम्हें प्राप्त कर लेने का आशीर्वाद  देना पड़ा-मानव रूप धारण करने के बाद भी तुम विशिष्ट साधनाओं को संपन्न कर ही दिव्यांगना को प्राप्त कर सकोगे।इसने उस साधना को संपन्न किया और तुम्हें प्रेमिका व पत्नी के रुप में प्राप्त कर सका।अब तुम इसके मन को स्थिरता प्रदान करें इसे गुहा साधनाओं में सिद्धाहस्त बनाने में सहायक बनोगे इस प्रकार दिव्यांगना और वैश्रब्य का मिलन इस धरा पर संभव हुआ।
     यह एक पौराणिक कथा थी जिसे काठमांडू में रहने वाले एक साधक ने एक प्राचीन पुस्तक में पढ़ा था और जिसे पढ़कर उसके मन में भी दिव्यांगना अप्सरा को प्राप्त करने की इच्छा जागृत हो गई।
  उस साधक ने भी उस पुस्तक में लिखी हुई विधि अनुसार इस विधि से वैश्रव्य ने साधना संपन्न की थी उस साधना को संपन्न किया जो इस प्रकार है-

साधना समय----
यह 3 दिन की साधना है जिसे लगातार तीन शुक्रवार को संपन्न करना चाहिए या फिर रवि पुष्य या गुरु पुष्य योग में इसे संपन्न करने से तीन शुक्रवार तक इस साधना को संपन्न नहीं करना पड़ता यह वैश्रब्य ऋषि द्वारा संपन्न की गई दुर्लभ और सर्वश्रेष्ठ साधना है जिसे स्त्री पुरुष कोई भी संपन्न कर सकता है।

सामग्री--दिव्यांगना यंत्र,दिव्यांगना माला

साधना विधि:-साधक रात्रि के समय इस साधना को संपन्न करें स्नान आदि कर शुद्ध सुंदर एवं आकर्षक वस्त्र धारण कर ले, तथा पहले से ही पूजा सामग्री एकत्र करके रख लें जिसमें एक थाली में धूप,दीप, कुमकुम, अक्षत, गुलाब या सुगंधित फूल की माला एक साबुत सुपारी, मेवे का नैवेद्य रखा होना चाहिए तथा साथ ही दिव्यांगना यंत्र और दिव्यांगना माला जो कि वैश्रब्य ऋषि द्वारा प्रमाणित मंत्रों से चेतन एवं प्राण प्रतिष्ठित हो पहले से ही मंगवा कर रख लेना चाहिए।
  इसके पश्चात साधक पूजा गृह को पहले से ही जल से धोकर स्वक्ष कर ले और अकेले ही साधना काल में वहां बैठकर मंत्र जप संपन्न करें, अन्य किसी को ना आने दे।सर्वप्रथम गुरुदेव का संक्षिप्त मानसिक पूजन संपन्न करें और लकड़ी के एक बजोट पर नया गुलाबी वस्त्र बिछा कर उस पर यंत्र को  स्थापित कर दें।चावल की एक ढेरी बनाकर उस पर सुपारी रख दें, जो कि गणेशजी का प्रतीक है, फिर भगवान गणपति का पूजन करें तथा यंत्र का पूजन प्रारंभ करें सर्वप्रथम कुमकुम फिर अक्षत उसके बाद पुष्प माला चढ़ा दे और मेव का भोग लगाएं।
  इस प्रकार पूजन प्रारंभ करें फिर हाथ में जल लेकर संकल्प ले मैं इस कारण हेतु इस साधना को संपन्न कर रहा हूं ऐसा कह कर जल को जमीन पर छोड़ दें, फिर उत्तराभिमुख हो आसन पर बैठकर 21 माला "दिव्यांगना माला" से निम्न मंत्र का जप करें-
ऊं ह्रीं दिव्यांगना वशमानाय ह्रीं फट्
मंत्र जप संपन्न करने के पश्चात माला को अपने गले मे धारण कर ले और यंत्र को वहीं पर पूजा स्थल में रखा रहने दे। तत्पश्चात गुरु आरती संपन्न करें और भोग ग्रहण कर ले, इस प्रकार 3 शुक्रवार तक मंत्र जप संपन्न करें ऐसा करने से उस साधक को सफलता प्राप्त होती ही है, लेकिन आवश्यकता है उस साधना के प्रति पूर्ण श्रद्धा और विश्वास की।
      साधना काल में साधक को विभिन्न विभिन्न प्रकार की अनुभव होते हैं कभी सुगंध आती हुई महसूस होती है तो कभी उसके स्पर्श का एहसास होता है या कभी स्वप्न में उसके दर्शन हो जाते हैं तो कभी साक्षात स्वरूप में भी वह प्रगट हो जाती है।इस प्रकार की अनेकों घटनाएं जो व्यक्ति को आश्चर्यचकित कर देने वाली होती है इस साधना काल में घट जाती है।
            इस साधना को संपन्न करने के 3 दिन पश्चात वह यंत्र और सभी सामग्री गुलाबी वस्त्र में ही लपेटकर किसी नदी, कुएं में विसर्जित कर देना चाहिए।
     इस साधना को जब उस साधक ने सिद्ध किया तो इस साधना के दौरान उसे विशेष अनुभव हुए जिसने उसके शरीर के रोम-रोम में एक पुलकित कर देने वाली सिहरन से भर गई थी।उसे प्रेमिका रूप में सिद्ध कर वह बड़ा ही सुखमय और आनंददायक जीवन व्यतीत कर रहा है क्योंकि वह अप्सरा उसकी पग-पग पर आने वाली बाधाओं से उसे आगाह कर देती है और उसके जीवन में प्रेममय वातावरण को प्रदान करती है।
        आज वह साधक सभी दृष्टियों से पूर्ण है धन-संपत्ति ऐश्वर्य,समृद्धि,सौंदर्य सभी कुछ उसके पास है जो कि इस दिव्यांगना की ही देन है और वह समस्त प्रकार के भौतिक सुखों को प्राप्त कर एक श्रेष्ठ एवं पूर्ण भौतिक जीवन जीने में समर्थ हो सका है,तथा इसके साथ ही साथ विभिन्न साधनों को भी कुशलता से संपन्न कर रहा है।

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