गुरुदेव....कुछ अनछुए प्रसंग



समुद्र से भी गहरा और हिमालय से भी विराट व्यक्तित्व है "पूज्य गुरुदेव डॉo नारायण दत्त श्रीमाली जी" का।आज इस व्यक्तित्व को गृहस्थ में देखकर यह विश्वास ही नहीं होता, कि उनके अन्दर इतनी विशाल ज्ञान का भंडार छिपा होगा। वे अपना एक-एक क्षण पूरी सार्थकता के साथ जी रहे हैं, उनके साथ रहने पर ही मुझे इस बात का एहसास हुआ, कि उनके पास रहना ही जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है, और उनकी सेवा में जो आनंद आता है वह अनिवर्चनीय है।
                                  वे भारतीय ऋषियों की उद्धत परंपरा की एक शाश्वत अचिंत्य कड़ी है, जिनकी आलोक में वर्तमान एवं भावी पीढ़ी अपना पथ देख सकेगी। इस अगाध विस्तृत समुद्र को थोड़े से शब्दों में बांधना कैसे संभव है, और ना ही मुझ में इतनी पात्रता ही है, कि उनके विराट व्यक्तित्व की छाया को भी स्पर्श कर सकूं,किन्तु जो कुछ मैंने देखा ,उनकी विराटता को, अद्वितीय जीवन दर्शन को और विशिष्ट और दुर्लभ साधना क्रम को, उसे मैं प्रयास पूर्वक साधकों और शिष्यों के सामने स्पष्ट कर देना चाहता हूं, जिससे वह भी अपने जीवन में संघर्ष और बाधाओं की प्रवाह किए बगैर मुस्कुराहट के साथ हर परिस्थिति का सामना करते हुए, अपने जीवन की प्रत्येक क्षण को सार्थकता के साथ जी सके और गृहस्थ में रहकर भी अपने साधनात्मक जीवन को व्यवस्थित एवं संयोजित करते हुए अपने गंतव्य तक पहुंच सके।
                         पूज्य गुरुदेव का जीवन तो हर पल संघर्षों ,बाधाओं ,आलोचनाओ, दुखों एवं समस्याओं की तीव्र ज्वाला में जलकर कुंदन हुआ है। पूज्य गुरुदेव तपोबल के  प्रेरणा पुंज है। वर्तमान गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी विदेह हैं।
                    अल्प आयु में ही वेदों,उपनिषदों आदि का भली प्रकार से अध्ययन कर चुके थे, इनका रुझान प्रारंभ से ही अध्यात्म की ओर प्रवृत्त रहा है मन में कुछ कर लेने की चाहा,अभिलाषा उनके मन में बचपन से घर कर गई। वैवाहिक सूत्र में बंधने पर भी वह बंधन उनके पैरों को जकड़ न सका और एक दिन अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए अध्ययन पथ पर बिना किसी की परवाह किए सारे बंधनों को तोड़कर निकल पड़े और इनके कठोर परिश्रम और दृढ़ निश्चय ने इन्हें सामान्य से एक असामान्य व्यक्तित्व वाला बना।दिया बहुत ही गंभीर चिंतन व गंभीर रहस्य छिपा है इस असाधारण व्यक्तित्व के पीछे।
                     इतने कम पृष्ठों में ऐसे अद्वितीय युगपुरुष के चरित्र का मूल्यांकन करना किसी भी दृष्टि से संभव नहीं है, मैंने जो कुछ उनके साथ रहकर देखा है, वह मेरे लिए अद्भुत, अनिवर्चनीय घटनाएं कही जा सकती है, उन घटनाओं के कुछ अंशो को मैंने इन पन्नों पर उतारने का प्रयास किया है।
                वे साधना- तपस्या के प्रति पूर्णता:  समर्पित व्यक्तित्व हैं, तो जीवन के प्रति उन्मुक्त सरल और  सह्रदय भी, वेद,कर्मकांड के प्रति इनका ज्ञान अगाध और विस्तृत है,तो मंत्र तंत्र के बारे में भी पूर्णता: जानकारी भी। ये पहले ऐसे व्यक्तित्व हैं जीनेमें संपूर्ण साधनाएं समाहित है, ऊंचे से ऊंचा विद्वान भी उनकी चरण- राज प्राप्त कर उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करता है
                    उनसे बात करते हुए मुझे ऐसा लगता है जैसे मैं प्रचंड गर्मी से निकालकर किसी वृक्ष की शीतल छाया में आ गया हूं,उनकी बातों से मन को शांति का अनुभव होता है, जैसे पुरवइया सारे शरीर को पुलकित कर रही हो, वे अपने-आप में पूर्ण व्यक्तित्व हैं जिन्होंने घनघोर अंधकार में सूर्य बनकर पूरे विश्व को आलोकित किया है। ऋषि मुनियों, वशिष्ठ,विश्वामित्र शंकराचार्य, शिष्यानंद,अवधूतानंद आदि बड़े-बड़े व्यक्तियों ने जिस चेतन को समाज में जागृत करने का प्रयास किया वह युग अपने आप में दिव्य युग था नाना पद्धतिया एवं विविध साधनाएं ऊंचाई की ओर अग्रसर थे थी परंतु आगे चलकर यह क्रम टूट गया ,ऐसे समय में जब भारतीय उस ज्ञान-विज्ञान से ठिठक गए और आध्यात्मिक ज्ञान के साहित्य को विदेशियों ने जलाकर खाक कर डाला तभी पूज्य गुरुदेव का आगमन उस खोई हुई परंपरा को पुनः जीवित कर देने के लिए हुआ................... क्रमशः

और एक बार फिर इस धरती पर साधना का मंत्रों का गोश्त चारों ओर गुंजरीत होने लगा है।
                  इस खोई हुई निधि को पुनः प्राप्त करने के लिए इन्हें जिन-जिन परिस्थितियों का ,अड़चनों का सामना करना पड़ा और आज भी करना पड़ रहा है उस स्थिति का शायद है किसी ने अनुभव किया होगा, पग-पग पर लांछन,तिरस्कार ,अपमान और व्यंग बालों के कड़वे घूंट पीने पड़े समाज के षड्यंत्रों का गरल अपने गले में उतारना पड़ा इतना होने पर भी वे अडिग खड़े हैं
           उन्हें हिमालय भी नहीं झुका सका और वे आध्यात्मिक पथ पर अपना एक-एक पग आगे भरते हुए हिमालय की उन गुफाओं में खून जमा देने वाली ठंड और बरसात की परवाह किए बगैर आगे बढ़ते जा रहे थे उन्हें ना तो भूख-प्यास की चिंता रहती ना ही पढ़ कर लहूलुहान होने का दुःख।
      वह दिन मुझे भलीभांति याद है जब वे चार-पांच दिन से भूखे थे जोरों की भूख लग रही थी अन्न का एक दाना भी नहीं खाया था छठे दिन जब वह आसानी हो गई तो पास के गांव से भिक्षा मांगने गए और भिक्षा में आटा प्राप्त कर गंगा के तट पर एक मोटी सी रोटी बनाकर अंगारों पर सेकने लगे....... पर जब भूख से प्राण निकले जा रहे थे इसलिए अधसेकी रोटी को खाने के लिए जैसे ही हाथ बढ़ाया...... उन्होंने अपने मन को धिक्कारा...... अंतर्मन ने कहा यह तो इंद्रियों की गुलामी है...... मन फिर भी नहीं माना..... उन्हें क्रोध आ गया और दूसरे क्षण उन्होंने उस रोटी को गंगा में फेंक दिया.... और बिना कुछ खाए पिए अपनी साधना में रत हो गए ......यह है मन पर नियंत्रण
देखने में पूज्य गुरुदेव शिव के समान ही हो औघड रूप में दिखाई देते थे ,शरीर के सभी वस्त्र का उन्होंने त्याग कर दिया था, शरीर पर सिर्फ एक मृगचर्म लपेटे रहते और हिमालय के दुर्गम स्थानों पर चढ़ते समय हाथों में दंड रहता...... एक बार यमुनोत्री के किनारे खड़े थे तब अपने एक शिष्य से बोले मेरा  दंड उसने कहा "आपका दंड "......इतना सुनते ही उन्होंने एक क्षण उसकी ओर देखा और दूसरे ही क्षण यह कहते हुए कि -"यह भी तो आसक्ती है कि यह मेरा है ऐसी आसक्ति किस काम की" और कहते-कहते वह दंड यमुनोत्री की लहरों में फेंक दिया ऐसा ही निर्मुक्त निस्पृह है उनका व्यक्तित्व।
                         कुल्लू मनाली का वह सौंदर्यशाली स्थल वर्षा का वह दिन जब ब्यास नदी अपनी उबाल तरंगों से मानव आसपास के क्षेत्र को निगल लेना चाहती हो ........लोगों का भयवश भागना ........ नदी का विकराल रूप उनकी आंखों में दहशत पैदा किए हुए था ऐसा लग रहा था........ मानो एक-दो दिन में वह नदी प्रलय की स्थिति उत्पन्न कर देगी तभी अचानक एक व्यक्ति लहरों की चपेट में आ गया बचाओ-बचाओ कह कर वह चिल्लाया पर किसी में हिम्मत नहीं थी कि वह नदी में कूदकर अपने हाथों से मृत्यु का वरण करें उसे बचाना तो दूर कूदने वाले का भी बचना संभव था इतने में तेज रफ्तार से दौड़ते हुए गुरुदेव वहां आए और अपनी जान की परवाह किए बगैर नदी में छलांग लगा दी आसपास के लोग सन्न से खड़े इस दृश्य को देखकर चीख पड़े .........मेरी आंखों में खौफनाक भय समाया हुआ था ऐसे तेजस्वी व्यक्ति को मृत्यु को इस तरह से खींच लेगी मैंने इसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी पर तभी अचानक गुरुदेव उस व्यक्ति को कंधों पर लादे नदी की विपरीत धारा में किनारे की ओर आ गए मेरे लिए यह बात अप्रत्याशित थी की लहरों के उस तांडव नृत्य से कोई बच जाए घोर आश्चर्य हुआ यह देख कर।
   फिर उस व्यक्ति को लेट आते हुए कृत्रिम श्वास देकर गुरुदेव ने उसकी जीवन रक्षा की सभी के हृदय गुरुदेव के प्रति कृतज्ञता से भर गए उसे होश में आया देखकर गुरुदेव वहां से उठे और भीगे वस्त्रों में ही आगे बढ़ गये, ना तो किसी को धन्यवाद देने का अवसर दिया और ना ही किसी प्रकार की कोई इच्छा ही रखी।
        उस दिन मैं मनाली के जंगलों में उनके साथ विचरण कर रहा था जंगल भयानक पशुओं से भरा हुआ था और जंगली भौसे वहां अत्यधिक मात्रा में थे तीन-साढ़े 3 वर्ष का भैंसा इतना खूंखार होता है कि शेर को भी अपने सींगों से उछाल देता है।
               यौवन के उन्माद में वह साक्षात् यमराज का रूप में दिखाई देता है।ऐसे ही हम दोनों बातचीत में मगन पगडंडी पर चले जा रहे थे, कि अचानक हमारे सामने 15-20 फीट की दूरी पर हीं एक यडियल भैंस लाल लाल आंखों से हमें घूर रहा था। उसकी विशालता और बलिष्ठता देखकर हाथी भी दुम दबाकर भाग खड़ा होता...... आसपास कोई पेड़ ना होने के कारण जान बचाने का कोई चारा नहीं था, ऐसा लगा मानो मृत्यु हमारे सामने साक्षात खड़ी हो....... अचानक वह भैंसा जोरो से हमारी ओर झपट्टा गुरुदेव ने अचानक ही 1 सेकंड के सौवें के हिस्से में तुरंत निर्णय लिया और मुझे धक्का देकर स्वयं भी उसकी मार्ग से हट गए...... भैंसा अपनी राहों में हमारे पास से होता हुआ निकल गया परंतु 15:20 फीट के बाद वह वापस लौटा तब तक गुरुदेव दृढ़ निश्चय करके उनके सामने खड़े रहे......और मुझे स्मरण है जैसे ही वह गुरुदेव की ओर झपटा उनका एक जोरदार मुक्का उसकी पीठ पर पड़ा..... वह मुक्का क्या था वज्रपात था..... वह जंगली भैंसा उन प्रहार को सहन ना कर सका और वहीं ढेर हो गया.... मैं आश्चर्यचकित हो गुरुदेव की ओर देखने लगा अगर वह ना होते तो मैं मृत्यु को प्राप्त हो गया होता।
      साधना का 21 वा दिन था पूज्य गुरुदेव बिना कुछ खाए-पीए लगातार इस अवधि में गंगा के तीव्र प्रवाह के बीच खड़े होकर "ब्रह्मांड आत्मसात् साधना" संपन्न कर रहे थे..... तट पर सैकड़ों शिष्यों की भीड़ बड़ी ही उत्सुकता से उनके विजय घोष की प्रतीक्षा कर रही थी...... आसपास के साधू सन्यासि भी भय मिश्रित आश्चर्य के साथ इस दृश्य को देख रहे थे..... मंत्र का जप संपन्न हुआ और गुरुदेव ने अपने दोनों हाथों को ऊपर उठाते हुए अपने गुरुदेव को अर्घ्य प्रदान किया....  इशारा पाते ही 5-10 शिष्य तुरंत पानी में उतरे और उस दृढ़ निश्चय योगी को बाहर निकालने का उपक्रम करने लगे.... उफ किस प्रकार से उनके पांव पानी में पड़े रहने के कारण सूज गए थे सारे नशे उभर आई थी जगह-जगह से मछलियों ने मांस उधेड़ लिए थे और एक एक इंच के गड्ढे साफ नजर आ रहे थे..... शिष्यों ने तुरंत ही गर्म तेल लेकर उनकी मालिश कर दी, पर ऐसी स्थिति में भी उन महापुरुष के चेहरे पर शिकन और पीड़ा की एक भी रेखा नहीं आई.... ऐसे योगीराज को शत-शत प्रणाम।
           परम पूज्य गुरुदेव जी हमेशा से कठिन से कठिन साधनाओं का चयन कर विपरीत परिस्थितियों में भी उनको संपन्न करके ही रहते हैं उस समय उनके ऊपर ऐसा जुनून सवार हो जाता है कि ना तो उन्हें अपने देह की चिंता रहती है और ना ही भूख-प्यास की आज पूरा विश्व उनका आभारी है कि उन्होंने लुप्त प्रायः साधनाओं को फिर से पुनर्जीवित किया है।
     मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि "काकभुशुंडि आश्रम" से आगे हम सभी रुके हुए थे 5 दिन से लगातार भयंकर तूफान आ रहा था....?. चुकी उन्हें अपनी साधना संपन्न करनी थी, हमारे बहुत मना करने पर भी वह गुफा के बाहर उस तूफान में ही साधना में लिप्त हो गए, ना तो उन्हें अतिरिक्त वस्त्र साथ लिया और ना ही कोई खाद्य सामग्री स्वीकार की 10 दिन की उस कठोर साधना के चिन्ह उनकी देह पर स्पष्ट दिखाई दे रहे थे शीत के कारण उनका शरीर अकड़ गया था और बिना भोजन किए काफी कमजोरी आ गई थी..?. पर फिर भी हम हैरान हैं जिन दिव्यास्त्रों की साधना में आज तक हमें सफलता नहीं मिली थी, उसे उन्होंने ऐसी विकट स्थिति में भी सफलता से प्राप्त कर लिया।
            तांत्रिक सम्मेलन में महाविद्याओं पर चर्चा चल रही थी..... तारा साधना में आने वाले कठिनाइयों पर समस्त योगी अपने विचार दे रहे थे,सभी के विचारानुसार प्रचलित विधि अत्यधिक दुर्गाम दुःसाध्य थी..... तभी पूज्य गुरुदेव बीच में उठे सभी योगियों को संबोधित करते हुए उन्होंने " तारा साधना"को संपन्न करने की एक नवीन एवं सरल विधि स्पष्ट की और उसे प्रत्यक्ष प्रमाणित भी किया। सभी तांत्रिकों ,योगियों  मे हर्ष की ध्वनि गूंज उठी और सभी ने एक स्वर में स्वीकार किया कि वास्तव में ही योगीराज परमहंस "डॉक्टर नारायण दत्त श्रीमाली जी" इस पृथ्वी की श्रेष्ठतम विभूति हैं और इस क्षेत्र में उन से श्रेष्ठ अन्य कोई भी नहीं...... वास्तव में ही वे प्राचीन ऋषियों की कड़ी की एक अद्भुभूूूत मंत्र दृष्टा एवं मंत्र सृृृ्ष्टा है जो हजारों-हजार वर्ष बाद ही इस पृथ्वी पर आते हैं।
    बूंद-बूंद कर सागर की तरह बना है या व्यक्तित्व जहां पर भी यह गए जिस किसी भी साधु सन्यासी योगी यति को देखा उन सब से इन्होंने बिना हिचक ज्ञान प्राप्त किया इन्होंने कभी उनकी सेवा करने में कमी नहीं छोड़ी और ना ही उन्होंने कभी ज्ञान देने में कृपणता दिखलाई......... अवधूत आनंद पगला बाबा भैरवी मां त्रिजटा अघोरी ना जाने कितने योगियों से इन्होंने विद्या प्राप्त की पर इतना प्रतिभाशाली व्यक्तित्व है इनका, की कुछ ही वर्षों में उन सबको पीछे छोड़ कर वे आगे बढ़ गए....... ज्ञान, तंत्र, साधना के क्षेत्र में उनसे भी ऊंचे उठ गए और बाद में उनका मार्गदर्शन भी किया। कठोर तप व निश्चय के बल पर ही यह ब्रह्मांड के श्रेष्ठतम व्यक्तित्व कहलाते हैं।

नोट-- गुरुदेव से संबंधित यह संस्मरण विभिन्न सूत्रों, सन्यासियों ,योगियो एवं व्यक्तियों से प्राप्त हुए हैं जिन्हें लेखबद्ध कर इन पृष्ठों पर दिखाया गया है                         जय सतगुरु देव महाराज की

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