सिद्धाश्रम-3


अब आगे सघन आश्रम शुरू हो गया था, चारों तरफ खुला खुला वातावरण प्रकृति के बीचो-बीच यह यह स्थान अपने आप में चेतनायुक्त दिव्य अनुभव हो रहा था, यहां पर विचरण करते हुए कई अति विशिष्ट योगी और साधु दिखाई दिए, जिनमें रसायनिज्ञ नागार्जुन भी थे। मैंने देखा कि अधिकतर योगी और सन्यासी पूज्य गुरुदेव से परिचित थे और लगभग वे सभी देखते ही अवाक हो जाते हैं और फिर तुरंत भूमि पर लेट कर दंडवत प्रणाम करने लगते।
                    थोड़ा सा आगे बढ़ने पर फूलों से अच्छादित एक कुटिया के पास रुक कर बाहर बड़े एक तेजस्वी साधु को मेरी तरफ संकेत कर कहा यह तेरे पास रहेगा ,फिर मुझे संबोधित करते हुए गुरुदेव ने कहा कि मैं जा रहा हूं अब तू दो-तीन दिन इनके साथ ही रहेगा, फिर उस साधु को संबोधित करते हुए कहा यह पहली बार ही सिद्धाश्रम में आया है, इसे स्नान कराकर विरुपाक्ष साधना सिखाओ और यदि इसके मन में घूमने की इच्छा हो तो तुम बराबर इसका मार्गदर्शन करते रहना।
                वह साधु गुरुदेव की आज्ञा पाकर धन्य हो गया और चरणों में लिपटकर खिल उठा ,गुरुदेव आगे बढ़ गए और मैं उस सन्यासी के पास रुक गया, बाद में मुझे ज्ञात हुआ कि सन्यासी का नाम पूर्णानंद स्वामी है उसकी आयु लगभग 250 वर्ष है परंतु मुझे वे 40 वर्ष से ज्यादा आयु के अनुभव नहीं हो रहे थे।
              उनके साथ मैं कुटिया के अंदर गया तो मैं अंदर का दृश्य देखकर आश्चर्यचकित रह गया। कुटिया में सारी सुख-सुविधाएं पहले से ही थी जो मनुष्य के लिए आवश्यक होती है। ऐसा लग रहा था जैसे वह मात्र कुटिया ही नहीं अपितु देव लोक का संक्षिप्त संस्करण हो।
                         मुझे पूर्णानंद ने बताया कि तुम्हें चलकर सिद्ध योगा झील में स्नान कर लेना चाहिए, जिससे कि तुम्हारा कायाकल्प हो सके। मैं उनके साथ झील की तरफ बढ़ गया ,झील के किनारे किनारे सैकड़ों संगमरमर के समान पारदर्शी स्फटिक पत्थर पड़े थे जिनमें से प्रकाश निकल रहा था मैं मृगचर्म पहनकर झील में उतर पड़ा। 
                    मैंने जी भर कर स्नान किया पर स्नान करते ही मुझे ऐसा लगा जैसे अंदर का सारा जीर्णता घुल गया हो। काम क्रोध लोभ मोह आदि वृतियां तिरोहित हो गई, मन में एक विशेष उमंग और उत्साह का लावा सा फूट पड़ा। हृदय में एक ही चिंतन रहा है कि मुझे यहां साधनात्मक दृष्टि से उच्चतम स्थिति प्राप्त करना है।
          मैं जब बाहर निकला और अपने शरीर को पूछा तो मेरे सारे वाह्य रोग समाप्त से हो गए, मैं कई वर्षों से गठिया रोग से पीड़ित था और बराबर घुटने में दर्द अनुभव कर रहा था परंतु स्नान करने के बाद आज तक ना तो गठिया रोग ने तकलीफ दी और ना अन्य किसी प्रकार का रोग मुझे अनुभव हुआ। मैंने शरीर पोछकर उस किनारे पड़े कांच की तरह स्फटिक पत्थर में झांका तो ऐसा लगा जैसे मेरा चेहरा अत्याधिक सुंदर ,आकर्षक और तेजस्वी हो उठा है। मेरे हाथों पैरों की झुरिया समाप्त सी हो गई और सबसे बड़ी आश्चर्य की बात तो यह थी कि मेरे शरीर में जो चर्बी की ज्यादा मात्रा थी वह स्वतः ही दूर होकर मेरा पूरा शरीर संतुलित और आकर्षक हो उठा।
                    मुझे पूर्णानंद स्वामी ने नए वस्त्र धारण करने के लिए दिए,उन वस्त्रों को पहनने के बाद मैं अपने आपको अत्यंत तरोताजा और स्वस्थ अनुभव कर रहा था। मैं जब पूर्णानंद स्वामी के साथ आया था तब उनके हाथों किसी प्रकार का कोई वस्त्र नहीं थे फिर यह अचानक हुआ वस्त्र उनके पास कहां से आ गए? यह मेरे लिए सामान्य कोतूहल की बात थी, मेरे पूछने पर स्वामी जी ने बताया कि यहां पर जिस वस्तु की कामना की जाती है प्रकृति सोता है, प्रकृति उस वस्तु की पूर्ति तत्क्षण कर देती है। परीक्षा के लिए मैंने एक क्षण के लिए मन में सोचा कि मैं कैसा साधू हूं कि मेरे हाथ में तो एक कमंडल भी नहीं है, उसी क्षण आश्चर्य से मैंने देखा कि मेरे दाहिने हाथ में स्वतः ही कमंडलु आ गया। मैं प्रकृति पूरित  इस व्यवस्था धन्य हो उठा।
         सन्यासी मित्र के साथ मैं उस उद्धान मे कुछ क्षणों के लिए जा बैठा जहां मृग शावक विचरण कर रहे थे ।सारा उद्यान सुगंधित पुष्पों से अच्छादित था दो तीन हिरण मेरे पास आकर मोहित से खड़ी हो गए जैसे वह मुझे कई वर्षों से जान रहे हो। एक छोटे से मृग शावक को मैंने गोदी में उठा लिया, वहां पर कई सन्यासी सन्यासीनिया सबैठी हुई परस्पर मनोविनोद में व्यस्त थी। मुझ जैसे आगंतुक को देखकर 8-10 सन्यासनिया पास आकर खड़ी हो गई और जब उन्हें पूर्णानंद स्वामी से पता चला कि मैं आज ही आया हूं और स्वामी निखिलेश्वरानंद जी का शिष्य हूं तो मैंने देखा कि गुरुदेव का नाम लेते हैं उनकी आंखें श्रद्धा से झुक गई और मेरे भाग्य पर ईर्ष्या करने लगी कि मैं उनका शिष्य हूं एक ने तो कहा कि वास्तव में ही आप कोई बहुत बड़े पुण्य किए होंगे तभी महायोगी का शिष्य प्राप्त कर सके हैं हम तो उनसे बातचीत करने को ही तरस रहे हैं, पर अब आप आ गए हैं तो शायद आपके द्वारा वहां तक पहुंच सके।
               मैं अपने गुरु के सम्मान और उनके प्रति लोगों की श्रद्धा देखकर गदगद हो उठा, वहां से मैं कल्पवृक्ष की तरफ बड़ा और कुछ क्षणों के लिए कल्प वृक्ष के नीचे ध्यान मस्त होकर बैठ गया। एक क्षण में मेरा ध्यान लग गया और अपने श्वास को सहस्त्रधारा में स्थित कर लिया। उस क्षण मुझे जो दृश्य और अनुभूति हुई वह शब्दों से परे हैं। कुछ समय बाद मैं चैतन्य होकर उठा और मेरे आदि ऋषि भारद्वाज के चरणों में साष्टांग दंडवत किया, निर्विकार ध्यान मग्न थे कभी-कभी कुछ क्षणों के लिए उनकी आंखें की ऊपर की पलक हिल जाती थी जिस से ज्ञात होता है कि वह पूरी ध्यान अवस्था में है
    3 दिन कैसे बीत गया कुछ पता ही नहीं चला प्रातः काल भगवान सूर्य बर्फीले कैलाश पर्वत के पीछे से निकलते हुए से प्रतीत होते थे कि मानो वे स्वयं आश्रम में आने के लिए व्याकुल हो। दिन आश्रम में घूमने में ही बीत जाता एक अलौकिक दृष्टिगोचर होती जो भी देखता वह अपने आप में अन्यतम होता है, एक एक दृश्य एक एक प्रकृति के रूप अत्यंत सम्मोहक और शब्दों से परे है ऐसा लग रहा था जैसे वहां प्रकृति ने शत-शत रूपों में अपना श्रृंगार किया है। मैं एक दिन सिद्ध प्रपात की ओर भी गया जहां पानी 300 फीट ऊपर से गिरता है कोई साधक साधिका है वहां विचरण करते हुए दिखाई दिए। रात तो वहां को अत्यधिक सम्मोहक और जादू भरी होती है कहीं पर सन्यासी अपने अनुभवों को सुना रहे हैं, तो कहीं शांत चित्त होकर ध्यानस्थ है, कहीं पर उच्च कोटि के जोगी प्रवचन कर रहे हैं और सैकड़ों की संख्या में ऋषि उनके सामने बैठे हुए उनकी आवाज की अमृत पान कर रहे हैं, चारों तरफ एक विचित्र उमंग का सैलाब मैंने अनुभव किया। 
           इन दिनो में पूज्य गुरुदेव से एक बार भी दर्शन नहीं हुए मैंने अपने सहचर पूर्णानंद स्वामी से पूछा तो उन्होंने कहा संभवता परम गुरु के पास गए हो पर हमें उधर बिना आज्ञा जाने का निषेध है।
       चौथ के दिन प्रातः काल में स्नान करके तैयार हुआ ही था कि पूज्य गुरुदेव दिखाई दिए ऐसा लगा जैसे कि मैं कई वर्षों से अपने गुरु से बिछड़ गया हूं और आज पुनः उनसे मिला हूं दौड़कर मै उनके चरणों से लिपट गया उन्होंने मेरे कायाकल्प को देखकर प्रसन्नता व्यक्त किया और कहा चलो वापस चलते हैं। यह शब्द मेरे लिए हथौड़े की तरह थी और मैं एक बारगी सन्न रह गया, मेरी रति मात्र भी इच्छा वापस चलने की नहीं हो रही थी, इसने नैसर्गिक स्थान पर न मन में किसी प्रकार का न अभाव होता और ना ही चिंता, दुख परेशानी ही। अब मुझे वापस उस संसार रूपी घोर नरक में फिर जाना होगा वहां पग पग पर झूठे छल,धोखा कपट व्यभिचार और घृणा है जहां आदमी नकली है और चेहरे पर एक कृत्रिम मुस्कुराहट से चढ़ाए हुए एक दूसरे को काटने की फिराक में हैं।
       पर मैं विवश था मैंने गुरुदेव से नम्र निवेदन भी किया और उन्होंने एक ही शब्द में मेरी आशाएं ध्वस्त कर दी की साधना और तपस्या का मूल उद्देश्य तो संतप्त और दग्ध लोगों का मार्गदर्शन करता है, उनके आंसू पोछना है, इनके लिए स्वयं को तेरी तिल जलाकर और सभी प्रकार के घात प्रतिघात को झेलना आवश्यक है, और पूर्णानंद स्वामी के सिर पर हाथ फेर कर गुरुदेव आगे बढ़ गए वह तो इतने से ही धन्य हो गए और प्रसन्नता के अतिरेक मे उनकी आंखों में आंसू छलक आए।
       विचरण करते हुए चल सन्यासी सन्यासी न्यूज़ सुना कि स्वामी जी पुनः जा रहे हैं तो वे दर्शन करने के लिए दौड़ दौड़ कर रास्ते के दोनों ओर खड़े हो गए और ज्यो ही वे स्वामी जी के  दर्शन करते अपने आप को हृदय कृत्य कृत्य अनुभव करते।
      इस बार गुरुदेव दूसरे रास्ते से चलकर सिद्धाश्रम से बाहर आए और फिर वहां से मुझे लेकर बद्रीनाथ पहुंचे वहां से बस द्वारा हम ऋषिकेश आये। ऋषिकेश में उन्होंने मुझे छोड़ते हुए कहा कि तुमने थोड़ी समय में साधना करके जो स्थिति प्राप्त की है उसको बराबर अक्षुण्य बनाए रखना। सधनात्मक अनुभवों को यथासंभव अपने तक ही सीमित रखो और कोई ऐसा कार्य मत करो जो सामाजिक नैतिक नियमों के विपरीत हो।
   यहां से गुरुदेव किसी अन्य स्थान पर एक-दो दिन के लिए जाने वाले थे, मुझे अपने घर चले जाने की आज्ञा प्राप्त हुई, पर अब मेरा मन घर जाने को नहीं हो रहा था मैं आंसू प्रति नेत्रों से सन्यास धारण करने की इच्छा प्रकट की तो उन्होंने स्वीकृति दे दी।
मैं घर लौटा और पुनः अपने कामकाज में लग गया परंतु एक क्षण के लिए भी मैं उस अलौकिक स्वर्ग को भुला नहीं पाया ,इसके बाद मेरे शरीर में ना तो कोई  व्याधि रही  और ना ही आज तक कोई बीमारी। मेरे  निखरे हुए यौवनमय स्वरूप को देखकर आज भी लोग आश्चर्य कर कर रहे हैं । यह सब उन महर्षियों की कृपा है जिनकी वजह से यह गूढ़ ज्ञान जीवित रह सका सबसे ज्यादा कृपा तो अपने गुरुदेव के प्रति है जिनकी कृपा से मैं अपने जीवन को जितना भी हो सका साधनामय बना सका हूं मेरा रोम रोम उनके प्रति कृतज्ञ है।

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